हज यात्रा पूर्ण अधिकार नहीं - इलाहाबाद हाई कोर्ट


 एक मामले में दोषसिद्धि से पहले अपीलकर्ता-जाहिद द्वारा अपनी पत्नी के साथ हज यात्रा के लिए आवेदन किया गया. साथ ही हज यात्रा के लिए जाहिद द्वारा शुल्क भी जमा कर दिया गया था। जिसके बाद उन्हें 4 मई, 2025 से 16 जून, 2025 तक निर्धारित हज यात्रा पर जाने के लिए चयनित कर लिया गया था । इस बीच उन्हें बहराइच के एडिशनल सेशन जज द्वारा IPC की धारा 304/34 के तहत 10 साल और IPC की धारा 323 के तहत छह महीने की सजा सुनाई गई। सजा के आदेश को चुनौती देते हुए जाहिद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की, साथ ही, हज के लिए विदेश यात्रा की अनुमति मांगने एक एक छोटी जमानत याचिका भी दायर की।

 जाहिद की याचिका के समर्थन में एडवोकेट द्वारा सैयद अबू अला बनाम एनसीबी 2024 लाइव लॉ (दिल्ली) 334  दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले का सहारा लिया गया , जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2010 में एन डी पी एस एक्ट के तहत दोषी ठहराए गए 73 वर्षीय व्यक्ति को हज करने के लिए विदेश यात्रा करने की अनुमति दी गई थी क्योंकि हज यात्रा इस्लामी आस्था में बहुत महत्व रखती है। दूसरी ओर, सरकारी वकील द्वारा उनकी अल्पकालिक जमानत का विरोध किया गया. हाईकोर्ट की पीठ ने नोट किया कि अपीलकर्ता, जिसे 10 साल जेल की सजा सुनाई गई, ने जेल में केवल एक महीना (26 मार्च, 2025 से) ही बिताया है।

इसके साथ ही हाई कोर्ट ने पाया कि अल्पकालिक जमानत/ पैरोल कानून के अनुसार न होकर गंभीर बीमारी या पारिवारिक आपात स्थिति जैसी कुछ अनिवार्यताओं के लिए अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त है। 

एकल जज ने कहा कि हज मुस्लिम धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति का दायित्व है लेकिन इस तरह की अल्पकालिक जमानत केवल इसलिए नहीं दी जा सकती, क्योंकि हज यात्रा के लिए आवेदन अपीलकर्ता को सजा सुनाए जाने से पहले प्रस्तुत किया गया और उसे मंजूरी दी गई। 

पीठ ने टिप्पणी की, "निस्संदेह इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम धर्म में हज एक दायित्व है, यहां तक ​कि धर्म का पालन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसका महत्व है, लेकिन दूसरी ओर केवल इसलिए कि आवेदन उसकी सजा से पहले प्रस्तुत किया गया। उसे अनुमति दी गई, अपीलकर्ता को अल्पकालिक जमानत देने का कारण नहीं हो सकता है। यह देखा गया है कि वह IPC की धारा 304/34 के साथ-साथ IPC की धारा 323 के तहत दोषी है, जिसमें आरोप बहुत गंभीर हैं। उसे 10 साल की अवधि के लिए सजा सुनाई जा रही है। एक महीने की कैद हो चुकी है।” 

इसके अलावा सैयद अबू अला बनाम एनसीबी 2024 लाइव लॉ (दिल्ली) 334  मामले से इस मामले को अलग करते हुए न्यायालय ने कहा कि उस विशेष मामले में याचिकाकर्ता ने 11.5 साल की सजा में से 10 साल की सजा काट ली है, जो उसकी जमानत को उचित ठहराता है। हालांकि यहां अपीलकर्ता ने 10 साल की सजा में से केवल एक महीने की सजा काटी है। इस पृष्ठभूमि में यह कहते हुए कि रिहा होने से पहले पूरी सजा पूरी करना अनिवार्य है और जमानत आवेदन पर फैसला करते समय कैदी के फरार होने की संभावना पर विचार किया जाना चाहिए, खंडपीठ ने उसकी याचिका को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

एकल जज जस्टिस आलोक माथुर की पीठ द्वारा आदेश में कहा गया, "कि अपीलकर्ता अपनी सजा पूरी करने के बाद कानून के अनुसार हज के लिए अपने विकल्प का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होगा। अनुच्छेद 21 व्यक्ति को कानून के अनुसार स्वतंत्रता प्रदान करता है। राज्य के विरुद्ध यह निषेधाज्ञा है कि वह कानून के अनुसार ही किसी को वंचित न करे। दोषसिद्धि के बाद कारावास कानून के प्रावधान के अनुसार आवागमन के अधिकार को कम करने के समान है। तदनुसार, इसे मनमाना या अवैध नहीं माना जा सकता।"

जस्टिस आलोक माथुर की पीठ द्वारा हज के लिए तीर्थ यात्रा करने का अधिकार को पूर्ण अधिकार नहीं माना गया ।अपीलकर्ता द्वारा सजा का मात्र एक महीना जैसी अल्पावधि ही जेल में भुगतने के कारण एकल जज की पीठ द्वारा इस पर रोक लगा दी गई , क्योंकि इस समय जमानत देने से उसके देश के कानून के चंगुल से बाहर भागने की संभावना बढ़ सकती है। पीठ ने कहा कि जेल में सजा काटने के बाद भी वह इस तरह की धार्मिक पूजा कर सकता है।

केस टाइटल- जाहिद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अतिरिक्त मुख्य सचिव गृह एलकेओ 2025 लाइव लॉ (एबी) 169

आभार - 


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली) 

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