सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान दिया उत्तराधिकार का अधिकार,
अपने हाल ही के एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य के उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में आदिवासी परिवार की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -
"कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी महिलाएं स्वतः ही उत्तराधिकार से वंचित हो जाती हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई प्रचलित प्रथा मौजूद है, जो पैतृक संपत्ति में महिला आदिवासी हिस्सेदारी के अधिकार को प्रतिबंधित करती है।"
प्रस्तुत मामले में पक्षकार ऐसी किसी प्रथा का अस्तित्व स्थापित नहीं कर सके, जिसमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया गया हो। न्यायालय ने कहा,
" रीति-रिवाज भी समय के बंधन में नहीं रह सकते। दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" न्यायालय ने कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है।"
न्यायालय ने आगे कहा
" कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विशिष्ट आदिवासी रीति-रिवाज या संहिताबद्ध कानून के अभाव में न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करना केवल लैंगिक विभाजन और भेदभाव को बढ़ाता है, जिसे कानून को समाप्त करना चाहिए।"
➡️ मौजूदा मामले में विवाद-
प्रस्तुत मामले में अपीलकर्ता धैया एक अनुसूचित जनजाति की महिला थी जिसके कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते उसके परिजन धैय्या के नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग रहे हैं। जिस दावे का परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों द्वारा विरोध किया गया और कहा गया कि आदिवासी रीति-रिवाजों के तहत महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर रखा गया है.अधीनस्थ अदालत, प्रथम अपीलीय जिला अदालत और हाईकोर्ट तीनों ने अपीलकर्ताओं के दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चूंकि अपीलकर्ता महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में विफल रहे, इसलिए आदिवासी महिला हिस्से की हकदार नहीं है।
➡️ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई-
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की,समवर्ती निष्कर्षों को दरकिनार करते हुए जस्टिस करोल द्वारा लिखित निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि
" किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समानता कायम रहनी चाहिए। किसी आदिवासी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित करना असंवैधानिक है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं से महिलाओं द्वारा उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की अपेक्षा करने में गलती की, बजाय इसके कि विरोधी पक्ष को ऐसी उत्तराधिकार पर रोक साबित करने की आवश्यकता हो।"
न्यायालय ने कहा,
“वर्तमान मामले में यदि निचली अदालत के विचार मान्य होते हैं तो किसी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को इस प्रथा में ऐसी विरासत के सकारात्मक दावे के अभाव के आधार पर संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। हालांकि, प्रथाएं भी कानून की तरह समय के बंधन में नहीं रह सकतीं। दूसरों को प्रथाओं की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”
न्यायालय ने आगे टिप्पणी की,
" यह सच है कि अपीलकर्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, लेकिन फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी ज़रा भी सिद्ध नहीं की जा सकी, और न ही उसे सिद्ध किया जा सका। ऐसी स्थिति में धैया (आदिवासी महिला) को उसके पिता की संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित करना, जब प्रथा मौन हो, उसके अपने भाइयों या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के अपने चचेरे भाई के साथ समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।” निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला आदिवासी को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।
अदालत ने कहा,
"ऐसा प्रतीत होता है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार प्रदान किया गया है और महिलाओं को नहीं किया गया है, उसके लिए कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है, खासकर उस स्थिति में जब कानून के अनुसार इस तरह का कोई निषेध प्रचलित नहीं दिखाया जा सकता। अनुच्छेद 15(1) में कहा गया कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ संविधान के सामूहिक लोकाचार की ओर इशारा करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो।"
इस प्रकार अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए धैया के कानूनी उत्तराधिकारी अपीलकर्ताओं को संपत्ति में समान हिस्सा प्रदान किया।
Case Title:
RAM CHARAN & ORS. VERSUS SUKHRAM & ORS.
आभार 🙏👇
प्रस्तुति
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली )
Nice judgement, thanks to share 🙏🙏
जवाब देंहटाएंThanks to comment 🙏🙏
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