मुस्लिम पर्सनल लॉ- वसीयत को चुनौती



 सुप्रीम कोर्ट ने आज एक याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है,जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई है कि

" भारत में मुसलमानों को पवित्र कुरान के अनुसार न्यायसंगत तरीके से वसीयत ( वसीयत/Will) बनाने का अधिकार है, और उन पर यह प्रतिबंध नहीं होना चाहिए कि वे अपनी संपत्ति का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही बिना कानूनी वारिसों की सहमति के वसीयत कर सकते हैं।"

 जस्टिस पमिडिघंटम श्री नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर की खंडपीठ ने नोटिस जारी किया और इस याचिका को Tarsem v. Dharma & Anr. मामले के साथ टैग कर दिया। उस मामले में भी कोर्ट ने मोहम्मडन लॉ के तहत वसीयत करने की शक्ति की सीमा से जुड़े समान प्रश्न तय किए थे।

याचिकाकर्ता, जो अबू धाबी में वकालत करते हैं, ने यह घोषणा करने का निर्देश मांगा है कि 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (Indian Succession Act) के तहत मुसलमानों को वसीयतनामा संबंधी उत्तराधिकार से बाहर रखना, और गैर-संहिताबद्ध मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत एक-तिहाई सीमा लगाना, संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25 और 300A का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया है —

 “जब कुरान की आयतें स्पष्ट रूप से मुसलमानों को न्यायसंगत वसीयत बनाने का आदेश देती हैं, तो किसी मानवीय रूप से लगाए गए प्रतिबंध को उस आदेश पर हावी नहीं होने दिया जा सकता। उत्तराधिकार अधिनियम से मुसलमानों को बाहर रखना और गैर-संहिताबद्ध मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत न्यायिक रूप से एक-तिहाई की सीमा लागू करना संविधान में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।”

याचिका में यह भी कहा गया है कि 

वसीयत बनाना इस्लाम में एक अत्यावश्यक धार्मिक प्रथा (essential religious practice) है और उस पर रोक लगाना अनुच्छेद 25 का उल्लंघन है। “वसीयत बनाने की स्वतंत्रता एक धार्मिक कर्तव्य है। इस अधिकार/कर्तव्य पर कोई भी प्रतिबंध न केवल संवैधानिक गारंटियों का उल्लंघन है बल्कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का भी हनन करता है।” याचिका का तर्क है कि वर्तमान व्यवस्था के अनुसार मुसलमान अपनी संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा ही वसीयत के रूप में दे सकते हैं, वह भी कानूनी वारिसों की सहमति के बिना नहीं — यह कुरानिक आदेश से असमर्थित है और असंगत परिणाम उत्पन्न करता है।

याचिका में उदाहरण दिया गया है कि—

“एक मुस्लिम पिता जो अपनी वसीयत में बेटों और बेटियों को समान हिस्सा देना चाहता है, जो आधुनिक मूल्यों और न्याय के सिद्धांत पर आधारित आकांक्षा है, वह वर्तमान कानून की गलत व्याख्या के चलते ऐसा नहीं कर सकता।” 

याचिका के अनुसार -

"भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 58 मुसलमानों को वसीयतनामा (testamentary succession) से बाहर रखती है और धारा 23 उन्हें अवसीयतनामा (intestate succession) से भी बाहर कर देती है। इस कारण मुसलमान अब भी गैर-संहिताबद्ध पर्सनल लॉ के अधीन रहते हैं।"

याचिका में शायरा बानो बनाम भारत संघ (Shayara Bano v. Union of India) मामले का हवाला दिया गया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 

"कुरान के विपरीत कोई भी प्रथा मान्य शरीयत नहीं हो सकती। "

याचिका का कहना है कि-

 "वर्तमान प्रतिबंध संविधानिक अधिकारों और कुरान में बताए गए धार्मिक कर्तव्य — वसीयत बनाने — दोनों का उल्लंघन है। "

याचिका में यह भी रेखांकित किया गया है कि 

"मौजूदा पाबंदी अनुचित परिणाम पैदा करती है, "

जैसे— 

🌑 एक मुस्लिम अपने घर को अपनी पत्नी और बेटियों को वसीयत नहीं कर सकता, 

🌑 बेटों और बेटियों को बराबर हिस्सा नहीं दे सकता,

🌑  आश्रित या कमजोर परिवार के सदस्यों के लिए अधिक प्रावधान नहीं कर सकता। 

अंततः, याचिकाकर्ता ने यह घोषणाएं मांगी हैं कि-

1️⃣— मुसलमानों को उत्तराधिकार अधिनियम से बाहर करना असंवैधानिक घोषित किया जाए,

2️⃣- मुसलमानों को कुरान के अनुसार अपनी संपत्ति का वसीयतनामा करने का अधिकार है,

3️⃣- एक-तिहाई सीमा और वारिसों के लिए वसीयत पर रोक अमान्य घोषित हो, और वसीयत बनाना अनुच्छेद 25 के तहत अत्यावश्यक धार्मिक प्रथा माना जाए।

आभार 🙏👇


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

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