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श्रमजीवी महिलाओं को लेकर कानूनी जागरूकता.

श्रमजीवी महिलाओं को लेकर कानूनी जागरूकता.    आज यदि देखा जाये तो महिलाओं  के लिए घर से बाहर जाकर काम करना ज़रूरी हो गया है और इसका एक परिणाम तो ये हुआ है कि स्त्री सशक्तिकरण के कार्य बढ़ गए है और स्त्री का आगे बढ़ने में भी तेज़ी आई है किन्तु इसके दुष्परिणाम भी कम नहीं हुए हैं  जहाँ एक तरफ महिलाओं को कार्यस्थल के बाहर के लोगों से खतरा बना हुआ है वहीँ कार्यस्थल पर भी यौन शोषण को लेकर  उसे नित्य-प्रति नए खतरों का सामना करना पड़ता है . कानून में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पहले भी काफी सतर्कता बरती गयी हैं किन्तु फिर भी इन घटनाओं पर अंकुश लगाया जाना संभव  नहीं हो पाया है.इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का ''विशाखा बनाम राजस्थान राज्य ए.आई.आर.१९९७ एस.सी.सी.३०११ ''का निर्णय विशेष महत्व रखता है इस केस में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने महिलाओं के प्रति काम के स्थान में होने वाले यौन उत्पीडन को रोकने के लिए  विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धांत विहित किये हैं .न्यायालय ने यह कहा ''कि देश की वर्तमान सिविल विधियाँ या अपराधिक विधियाँ काम के स्थान पर महिलाओं के यौन शो

फांसी और वैधानिक स्थिति

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पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी जी के हत्यारों मुरुगन,संतन,और  पेरारिवलन की फाँसी की सजा ८ सप्ताह तक टालना एक  बार फिर फाँसी को लेके विवादों को जन्म दे गया  इनकी फाँसी की सजा को माफ़ करने के पक्ष में तमिलनाडु के कई इलाकों में विरोध प्रदर्शन हुए कांचीपुरम में सेनकोदी[२७] नाम की महिला ने खुद को आग लगा कर जान दे दी .२९ अगस्त को कानून के करीब १०० छात्रों ने ट्रैफिक जाम कर दिया.वहीँ ''द हिन्दू गवर्नमेंट ला कॉलेज''के छात्रों ने त्रिची में ''रेल रोको'आन्दोलन किया . जबकि दंड विधि के अंतर्गत फाँसी के लिए निम्न व्यवस्थाएं की गयी हैं- १-भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ना या युद्ध करने का प्रयत्न या दुष्प्रेरण करना ;[धारा १२१] २- सैनिक विद्रोह का दुष्प्रेरण,[धारा १३२] ३- मृत्यु दंड से दंडनीय अपराध के लिए किसी व्यक्ति  की दोषसिद्धि करने के आशय से उसके विरुद्ध मिथ्या साक्ष्य देना या गढ़ना [धारा १९४] ४- हत्या[धारा-३०२] ५- आजीवन कारावास के दंडादेश के अधीन रहते हुए किसी व्यक्ति की हत्या करना [धारा ३०३] ६- किसी शिशु या उन्मत्त व्यक्ति को आत्महत्या करने के  लिए दुष्प्रेर

आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध .

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आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध .      भारतीय दंड सहिंता की धारा ३०९ कहती है -''जो कोई आत्महत्या करने का प्रयत्न करेगा ओर उस अपराध को करने के लिए कोई कार्य करेगा वह सादा कारावास से ,जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से ,या दोनों से दण्डित किया जायेगा .'' सम्पूर्ण दंड सहिंता में ये ही एक ऐसी धारा है जिसमे अपराध के होने पर कोई सजा नहीं है ओर अपराध के पूर्ण न हो पाने पर इसे करने वाला सजा काटता है.ये धारा आज तक न्यायविदों के गले से नीचे नहीं उतरी है क्योंकि ये ही ऐसी धारा है जिसे न्याय की कसौटी पर खरी नहीं कहा जा सकता है .आये दिन समाचार पत्रों में ऐसे समाचार आते हैं -''जैसे अभी हाल में मुज़फ्फरनगर में एक महिला द्वारा अपने व् अपने तीन बच्चों पर तेल छिड़ककर आत्महत्या के प्रयास करने पर पुलिस द्वारा उसे पकड़ा गया .ऐसे ही एक समाचार के अनुसार आत्मदाह के प्रयास पर मुकदमा ,ये ऐसे समाचार हैं जो हमारी न्याय व्यवस्था पर ऊँगली उठाने के लिए पर्याप्त हैं . पी.रथिनम नागभूषण पट्नायिक बनाम भारत संघ ए.आई.आर. १९९४ एस.सी. १८४४  के वाद में दिए गए

स्वतंत्रता का अधिकार [अनुच्छेद-१९-२२]

वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों में सर्वोच्च माना गया है .स्वतंत्रता का हमारे जीवन में सर्वाधिक महत्व है किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है -''स्वतंत्रता ही जीवन है.''क्योंकि स्वतंत्रता के अभाव में मनुष्य के लिए व्यक्तित्व का निर्माण ,विकास दोनों कठिन कार्य हैं.भारतीय संविधान अपने अनुच्छेद १९ से लेकर २२ के द्वारा नागरिकों को स्वतंत्रता सम्बन्धी अधिकार प्रदान करता है ये स्वतंत्रताएं मूल अधिकारों के आधार स्तम्भ हैं .इनमे ६ मूलभूत स्वतंत्रताओं का स्थान सर्वप्रमुख है जो की निम्न लिखित हैं-      [क]वाक स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ;      [ख]शांतिपूर्वक और निरायुद्ध सम्मलेन करने की स्वतंत्रता ;      [ग]संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता ;      [घ]भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता ;      [ड़] भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता ;और       [च]४४वे संविधान संशोधन अधिनियम ,१९७८ द्वारा निरसित ;      [छ]कोई वृत्ति ,उपजीविका ,व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता . अनुच्छेद १९ द्वारा प्रदत्त अधिकार क

धारा ४९८-क भा. द. विधान 'एक विश्लेषण '

विवाह दो दिलों का मेल ,दो परिवारों का मेल ,मंगल कार्य और भी पता नहीं किस किस उपाधि से विभूषित किया जाता है किन्तु एक उपाधि जो इस मंगल कार्य को कलंक लगाने वाली है वह है ''दहेज़ का व्यापार''और यह व्यापर विवाह के लिए आरम्भ हुए कार्य से आरम्भ हो जाता है और यही व्यापार कारण है उन अनगिनत क्रूरताओं का जिन्हें झेलने  को  विवाहिता स्त्री तो विवश है और विवश हैं उसके साथ उसके मायके के प्रत्येक सदस्य.कानून ने विवाहिता स्त्री की स्थति ससुराल में मज़बूत करने हेतु कई उपाय किये और उसके ससुराल वालों व् उसके पति  पर लगाम कसने को भारतीय दंड सहिंता में धारा ४९८-क स्थापित की और ऐसी क्रूरता करने वालों को कानून के घेरे में लिया, पर जैसे की भारत में हर कानून का सदुपयोग बाद में दुरूपयोग पहले आरम्भ   हो जाता है ऐसा ही धारा ४९८-क के साथ हुआ.दहेज़ प्रताड़ना के आरोपों में गुनाहगार के साथ बेगुनाह भी जेल में ठूंसे जा रहे हैं .सुप्रीम कोर्ट इसे लेकर परेशान है ही विधि आयोग भी इसे लेकर , धारा ४९८-क को यह मानकर कि यह पत्नी के परिजनों के हाथ में दबाव का एक हथियार बन गयी है ,दो बार शमनीय बनाने की सिफारिश क

समता का अधिकार -२

अब आगे मैं आपको बता रही हूँ कि ये अधिकार भारत के नागरिकों व् अनागरिकों दोनों को प्राप्त है. इस प्रकार भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह भारत का नागरिक हो या नहीं ,समान विधि के अधीन होगा और उसे विधि का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा.इसके विपरीत अनु.१५,१६,१७,१८ आदि के उपबंधों का लाभ केवल''नागरिकों ''को प्राप्त है.साथ ही इसके अंतर्गत विधिक व्यक्ति भी सम्मिलित हैं.चिरंजीत लाल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनु.१४ में प्रयुक्त ''व्यक्ति ''शब्द के अंतर्गत विधिक व्यक्ति भी सम्मिलित है.अतः एक निगम जो कि ''विधिक व्यक्ति''है को भी विधि के समक्ष समता का अधिकार उपलब्ध है. नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत अनु.१४ में निहित है-       अपने एतिहासिक महत्व के निर्णय ''सेंट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन  बनाम ब्रजोनाथ गांगुली में उच्चतम न्यायलय ने कहा-''कोई सेवा नियम जो स्थाई कर्मचारियों को बिना कारण बताये ३ माह की नोटिस या उसके बदले में ३ माह का वेतन देकर सेवा समाप्ति की शक्ति प्रदान करता है वह संव

समता का अधिकार

भारतीय संविधान अनु.१४ से लेकर अनु.१८ तक प्रत्येक व्यक्ति को समता का अधिकार प्रदान करता है.ये समता का अधिकार भी दो भागो में विभक्त है .जो निम्नलिखित हैं- [क] विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार      अनु.१४ कहता है कि''भारत राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा .'' ये अनुच्छेद दो वाक्यांश समेटे है जिनमे एक है-''विधि के समक्ष समता''और दूसरा है ''विधियों का समान संरक्षण''     ''विधि के समक्ष समता'' का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच पूर्ण समानता से नहीं है क्योंकि ऐसा संभव भी नहीं है .इसका तात्पर्य केवल इतना है कि जन्म ,मूलवंश ,आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच विशेषाधिकारों को प्रदान करने और कर्तव्यों को अधिरोपण करने में कोई विभेद नहीं किया जायेगा.तथा प्रत्येक व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा. ''विधियों का समान संरक्षण'' का अर्थ है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों को समान विधियों के अधीन रखना तथा समान

मूल अधिकार-२

मूल अधिकारों के बारे में जानकारी होने से पहले हमारा यह जानना भी जरूरी है की  ये अधिकार असीमित व् अप्रतिबंधित नहीं हैं.संविधान में इस बात का ध्यान रखा गया है की व्यक्ति को ऐसी स्वतंत्रता प्रदान न की जाये की समाज में अव्यवस्था व् अराजकता फ़ैल जाये.असीमित स्वतंत्रता एक ऐसा लाइसेंस हो जाती है जो दूसरों के अधिकारों में बाधा पहुंचती है.इन अधिकारों का प्रयोग व्यक्ति समाज में रहकर करता है और इसलिए इनपर ऐसी व्यवस्था होना आवश्यक है.अधिकारों के असीमित व् अनियमित प्रयोग से स्वयं स्वतंत्रताएं नष्ट हो जाएँगी.अतः आवश्यक है की व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रयोग के साथ दूसरों के अधिकारों के प्रति आदर भी रखे.माननीय न्यायाधीश मुखर्जी ने ए.के.गोपालन बनाम मद्रास राज्य ए.आई.आर.१९५२ एस .सी.२७ के मामले में इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा''की ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जिसे हम पूर्ण और असीमित स्वतंत्रता कह सकें,जिस पर सभी प्रकार के अवरोध हटा लिए जाएँ क्योंकि इसका परिणाम अराजकता और अव्यवस्था होगी .नागरिकों के अधिकारों के प्रयोग पर देश और विदेश की सरकारें ऐसे युक्तियुक्त निर्बन्धन लगा सकती हैं ज

मूल अधिकार

    मानव जीवन में अधिकारों का बहुत महत्व है ओर यदि वे देश के सर्वोच्च कानून ''संविधान ''द्वारा   मिले हों तो उनका महत्व कई गुना बढ़ जाता है. संविधान के भाग ३ को भारत का अधिकार पत्र [megna carta ]कहा जाता है .[megna carta ] इसलिए कि ये इंग्लेंड के संविधान से ग्रहण किये गए हैं. [megna carta ]इंग्लेंड का अधिकार पत्र है.इस अधिकार पत्र द्वारा ही अंग्रेजों ने सन १२१५ में इंग्लेंड के सम्राट जान  से नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा प्राप्त की थी.यह अधिकार पत्र मूल अधिकारों से सम्बंधित प्रथम लिखित दस्तावेज है.इस दस्तावेज को मूल अधिकारों का जन्मदाता कहा जाता है .इसके पश्चात् समय-समय पर सम्राट ने अनेक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की .अंत में १६८९ में [bill of rights ]नमक दस्तावेज लिखा गया जिसमे जनता को दिए गए सभी महत्वपूर्ण अधिकारों ओर स्वतंत्रताओं को समाविष्ट कर दिया गया.      भारतीय संविधान अपने में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा समाविष्ट नहीं  करता क्योंकि उसका उद्देश्य इन्हें समाविष्ट करने का ये था कि एक विधि शासित सरकार की स्थापना हो न कि मनुष्य द्वारा संचालित सरकार कि-'&#