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अविवाहित बेटी - भरण-पोषण अधिकार

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अविवाहित बेटी का भरण-पोषण अधिकार दंड प्रक्रिया सहिंता १९७३ की धारा १२५ [१] के अनुसार ''यदि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति - ............................................................................................................................................... [ग] -अपने धर्मज या अधर्मज संतान का [जो विवाहित पुत्री  नहीं है ],जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है ,जहाँ  ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण -पोषण करने में असमर्थ है ,.......... ........................................................................................................................................................ भरण पोषण करने की उपेक्षा करता है  या भरण पोषण करने से इंकार करता है तो प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट ,ऐसी उपेक्षा या इंकार साबित होने पर ,ऐसे व्यक्ति को ये निर्देश दे सकेगा कि वह अपनी ऐसी संतान को ऐसी मासिक दर पर जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे भरण पोषण मासिक भत्ता दे . और इसी कानून का अनुसरण  करते हुए   मुंबई हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति के यू चंडीवाल 

वसीयत सम्बन्धी हिन्दू विधि

वसीयत सम्बन्धी हिन्दू विधि वसीयत अर्थात इच्छा पत्र एक हिन्दू द्वारा अपनी संपत्ति के सम्बन्ध में एक विधिक घोषणा के समान है जो वह अपनी मृत्यु के बाद सम्पन्न होने की इच्छा करता है। प्राचीन हिन्दू विधि में इस सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती किन्तु आधुनिक विद्वानों के अनुसार  हिन्दू इच्छा पत्र द्वारा अपनी संपत्ति किसी को दे सकता है . वसीयत किसी जीवित व्यक्ति द्वारा अपनी संपत्ति के बारे में कानूनी घोषणा है जो उसके मरने के बाद प्रभावी होती है . वसीयत का पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है पर दो साक्षियों द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है [माधव्य बनाम अचभा २ एम.एल.जे ७१६ ] प्रत्येक स्वस्थ मस्तिष्क वाला वयस्क व्यक्ति जिसने भारतीय वयस्कता अधिनियम १८७५ के अंतर्गत वयस्कता की आयु प्राप्त की है ,इच्छापत्र द्वारा अपनी संपत्ति का निवर्तन कर सकता है अर्थात किसी को दे सकता है [हरद्वारी लाल बनाम गौरी ३३ इलाहाबाद ५२५ ] वसीयत केवल उस संपत्ति की ही की जा सकती है जिसे अपने जीवित रहते दान रीति द्वारा अंतरित किया जा सकता हो ,ऐसी संपत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती जिससे पत्नी का कानूनी अधिका

उच्चतम न्यायालय आम आदमी को न्याय से तोड़े नहीं .

उच्चतम न्यायालय आम आदमी को न्याय से तोड़े नहीं . '' एफ. आई.आर .के लिए यूँ ही नहीं जा सकेंगे अब मजिस्ट्रेट के पास '' माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय देकर धारा १५६ [३] में आम आदमी से जुडी न्याय की आस को भी उससे चार कदम और दूर कर दिया . धारा १५६ [३] दंड प्रक्रिया संहिता की वह धारा है जिसके सहारे आम आदमी जो कि किसी अपराध का पीड़ित है और पुलिसिया कार्यवाही और तरीके से परेशान है वह अपनी परेशानी लेकर मजिस्ट्रेट तक पहुँच जाता है लेकिन अब उससे उसका यह सहारा भी उच्चतम न्यायलय ने छीन लिया है .धारा १५६[३]  धारा १९० में सशक्त किये गए मजिस्ट्रेट को  पुलिस अधिकारी के समान अन्वेषण या आदेश का अधिकार देती है और यह अधिकार उसे तब मिलता है जब पीड़ित पहले अपनी एफ .आई. आर. को दर्ज कराने को पहले सम्बंधित थाने में भटकता है फिर वहां से निराश होकर एस.पी. को अपनी दरखास्त भेजता है और जब वहां से भी कोई कार्यवाही नहीं होती तब थक-हारकर कानून की शरण में आता है और मजिस्ट्रेट के पास अपनी शिकायत ले जाता है .अब उच्चतम न्यायालय ने इसमें भी उसकी आवेदन के साथ हलफनामा अर्थात शपथ पत्र जोड़ दिया है जिसमे वह इस

धारा ३७५ द्वारा परिभाषित यौन अपराध की परिभाषा में परिवर्तन होना ही चाहिए .

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The Indian Penal Code, 1860 Citation Act No. 45 of 1860 Territorial extent Whole of India except the State of  Jammu and Kashmir Enacted by Parliament of India Date enacted 6 October 1860 Date assented to 6 October 1860 Date commenced 6 October 1860 भारतीय दंड संहिता १८६० का अध्याय १६ का उप-अध्याय ''यौन अपराध ''से सम्बंधित है जिसमे धारा ३७५ कहती है- [ I.P.C. ] Central Government Act Section 375 in The Indian Penal Code, 1860 375. Rape.-- A man is said to commit" rape" who, except in the case hereinafter excepted, has sexual intercourse with a woman under circumstances falling under any of the six following descriptions:- First.- Against her will. Secondly.- Without her consent. Thirdly.- With her consent, when her consent has been obtained by putting her or any person in whom she is interested in fear of death or of hurt. Fourthly.- With her consent, when the man knows that he is not her husband, and that her consent is given beca