उच्चतम न्यायालय आम आदमी को न्याय से तोड़े नहीं .
उच्चतम न्यायालय आम आदमी को न्याय से तोड़े नहीं .
'' एफ. आई.आर .के लिए यूँ ही नहीं जा सकेंगे अब मजिस्ट्रेट के पास '' माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय देकर धारा १५६ [३] में आम आदमी से जुडी न्याय की आस को भी उससे चार कदम और दूर कर दिया .
धारा १५६ [३] दंड प्रक्रिया संहिता की वह धारा है जिसके सहारे आम आदमी जो कि किसी अपराध का पीड़ित है और पुलिसिया कार्यवाही और तरीके से परेशान है वह अपनी परेशानी लेकर मजिस्ट्रेट तक पहुँच जाता है लेकिन अब उससे उसका यह सहारा भी उच्चतम न्यायलय ने छीन लिया है .धारा १५६[३] धारा १९० में सशक्त किये गए मजिस्ट्रेट को पुलिस अधिकारी के समान अन्वेषण या आदेश का अधिकार देती है और यह अधिकार उसे तब मिलता है जब पीड़ित पहले अपनी एफ .आई. आर. को दर्ज कराने को पहले सम्बंधित थाने में भटकता है फिर वहां से निराश होकर एस.पी. को अपनी दरखास्त भेजता है और जब वहां से भी कोई कार्यवाही नहीं होती तब थक-हारकर कानून की शरण में आता है और मजिस्ट्रेट के पास अपनी शिकायत ले जाता है .अब उच्चतम न्यायालय ने इसमें भी उसकी आवेदन के साथ हलफनामा अर्थात शपथ पत्र जोड़ दिया है जिसमे वह इस बात की शपथ लेगा कि अगर उसकी शिकायत झूठी पायी जाये तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाएगी जबकि कानून में पहले ही ऐसी व्यवस्थाएं हैं कि इस हलफनामे की बाध्यता यहाँ जोड़े जाने का कोई औचित्य ही नहीं है .
भारतीय दंड संहिता की धारा १७७ किसी लोक सेवक को मिथ्या इत्तिला देने पर छह माह का सादा कारावास और एक हज़ार रूपये तक के जुर्माने का दंडादेश देती है और यदि इत्तिला देने वाला उसके लिए वैध रूप से आबद्ध होने पर भी मिथ्या इत्तिला देता है तब दो वर्ष तक के दोनों भांति का कारावास से व् जुर्माने का दंडादेश देती है .
जब हमारे देश का कानून पहले ही इस सम्बन्ध में व्यवस्था कर चूका है तब यहाँ और बाध्यताएं जोड़कर आम आदमी के लिए पीड़ित होने पर न्याय की राह में ऐसी व्यवस्थाएं कांटे बोना ही कही जाएँगी अगर कोई व्यवस्था वास्तव में होनी चाहिए तो वह यह है कि पुलिस सभी एफ.आई.आर. दर्ज करे और अपने स्तर से निष्पक्ष व् तुरंत जांचकर मामले की तह तक पहुंचे ऐसे आदेश उच्चतम न्यायालय को कर आम आदमी के लिए न्याय की राहें खोलने का भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए न कि नए से नए कार्यवाही के तरीके थोपकर उसका न्याय व्यवस्था से विश्वास तोड़ने का यत्न .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
'' एफ. आई.आर .के लिए यूँ ही नहीं जा सकेंगे अब मजिस्ट्रेट के पास '' माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय देकर धारा १५६ [३] में आम आदमी से जुडी न्याय की आस को भी उससे चार कदम और दूर कर दिया .
धारा १५६ [३] दंड प्रक्रिया संहिता की वह धारा है जिसके सहारे आम आदमी जो कि किसी अपराध का पीड़ित है और पुलिसिया कार्यवाही और तरीके से परेशान है वह अपनी परेशानी लेकर मजिस्ट्रेट तक पहुँच जाता है लेकिन अब उससे उसका यह सहारा भी उच्चतम न्यायलय ने छीन लिया है .धारा १५६[३] धारा १९० में सशक्त किये गए मजिस्ट्रेट को पुलिस अधिकारी के समान अन्वेषण या आदेश का अधिकार देती है और यह अधिकार उसे तब मिलता है जब पीड़ित पहले अपनी एफ .आई. आर. को दर्ज कराने को पहले सम्बंधित थाने में भटकता है फिर वहां से निराश होकर एस.पी. को अपनी दरखास्त भेजता है और जब वहां से भी कोई कार्यवाही नहीं होती तब थक-हारकर कानून की शरण में आता है और मजिस्ट्रेट के पास अपनी शिकायत ले जाता है .अब उच्चतम न्यायालय ने इसमें भी उसकी आवेदन के साथ हलफनामा अर्थात शपथ पत्र जोड़ दिया है जिसमे वह इस बात की शपथ लेगा कि अगर उसकी शिकायत झूठी पायी जाये तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाएगी जबकि कानून में पहले ही ऐसी व्यवस्थाएं हैं कि इस हलफनामे की बाध्यता यहाँ जोड़े जाने का कोई औचित्य ही नहीं है .
भारतीय दंड संहिता की धारा १७७ किसी लोक सेवक को मिथ्या इत्तिला देने पर छह माह का सादा कारावास और एक हज़ार रूपये तक के जुर्माने का दंडादेश देती है और यदि इत्तिला देने वाला उसके लिए वैध रूप से आबद्ध होने पर भी मिथ्या इत्तिला देता है तब दो वर्ष तक के दोनों भांति का कारावास से व् जुर्माने का दंडादेश देती है .
जब हमारे देश का कानून पहले ही इस सम्बन्ध में व्यवस्था कर चूका है तब यहाँ और बाध्यताएं जोड़कर आम आदमी के लिए पीड़ित होने पर न्याय की राह में ऐसी व्यवस्थाएं कांटे बोना ही कही जाएँगी अगर कोई व्यवस्था वास्तव में होनी चाहिए तो वह यह है कि पुलिस सभी एफ.आई.आर. दर्ज करे और अपने स्तर से निष्पक्ष व् तुरंत जांचकर मामले की तह तक पहुंचे ऐसे आदेश उच्चतम न्यायालय को कर आम आदमी के लिए न्याय की राहें खोलने का भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए न कि नए से नए कार्यवाही के तरीके थोपकर उसका न्याय व्यवस्था से विश्वास तोड़ने का यत्न .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
नवरात्रों की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (28-03-2015) को "जहां पेड़ है वहाँ घर है" {चर्चा - 1931} पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यही कहलाता है कानूने करना .
जवाब देंहटाएंशीघ्र ही संसोधन होगा।
जवाब देंहटाएं