संपत्ति का अधिकार-२
संपत्ति का अधिकार-२
इस प्रकार संविधान ने इस अनुच्छेद का उपबंध विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किये जाने के लिए किया है .क्योंकि संपत्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है .सामाजिक आर्थिक क्रांति में संपत्ति का महत्वपूर्ण योगदान होता है ..आधुनिक औद्योगिक समाज में इसलिए इसको शीर्ष पर रखा गया है ..विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाएं भी इसी अवधारणा के अंतर्गत दक्षिण ,मध्य और वाम तीन भागों में विभाजित हो गयी है .संत थामस एक्विनास के मध्ययुगीन दर्शन शास्त्र और उसके बाद के दशकों में तथा सुआरेज के शास्त्र में भी संपत्ति को ,यद्यपि प्राकृतिक अधिकार की विषय वस्तु न मानकर केवल सामाजिक उपादेयता और सुविधा की विषय वस्तु माना गया था ,परन्तु लाक के विधिक दर्शन में इसे मानव के अहरणीय प्राकृतिक अधिकार के रूप में मान लिया गया था .सामंतवादी समाज में भूस्वामित्व तो एक महत्वपूर्ण विधिक अधिकार ही बन गया था ..पश्चिम में वाणिज्य और उद्योग के सतत विकास के परिणाम स्वरुप व्यक्ति को संपत्ति से वंचित करने की आवश्यकता महसूस की गयी .संपत्ति को मार्क्स की विवेचनाओं में आधुनिक आद्योगिक समाज की कुंजी भी माना गया .उत्पादन स्रोतों के स्वामी होने के कारण पूंजीपति प्रभावशाली ढंग से समाज पर नियंत्रण स्थापित करने लगे .मार्क्स के सिद्धांतों में इस पूंजीवादी नियंत्रण को समुदाय के हाथों में स्थानांतरित करने का औचित्य प्रतिपादित किया गया .समय के बदलते स्तरों के साथ साथ भूमि और उद्योगों का स्वामित्व स्थानांतरित होकर समुदाय के हाथों में आने लगा और फिर समुदाय इन्हीं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर ''नियंत्रण ''स्थापित करने में सफल हो सका ........[ TO BE CONTINUED ]
शालिनी कौशिक [एडवोकेट]
[कानूनी ज्ञान ]
इस प्रकार संविधान ने इस अनुच्छेद का उपबंध विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किये जाने के लिए किया है .क्योंकि संपत्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है .सामाजिक आर्थिक क्रांति में संपत्ति का महत्वपूर्ण योगदान होता है ..आधुनिक औद्योगिक समाज में इसलिए इसको शीर्ष पर रखा गया है ..विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाएं भी इसी अवधारणा के अंतर्गत दक्षिण ,मध्य और वाम तीन भागों में विभाजित हो गयी है .संत थामस एक्विनास के मध्ययुगीन दर्शन शास्त्र और उसके बाद के दशकों में तथा सुआरेज के शास्त्र में भी संपत्ति को ,यद्यपि प्राकृतिक अधिकार की विषय वस्तु न मानकर केवल सामाजिक उपादेयता और सुविधा की विषय वस्तु माना गया था ,परन्तु लाक के विधिक दर्शन में इसे मानव के अहरणीय प्राकृतिक अधिकार के रूप में मान लिया गया था .सामंतवादी समाज में भूस्वामित्व तो एक महत्वपूर्ण विधिक अधिकार ही बन गया था ..पश्चिम में वाणिज्य और उद्योग के सतत विकास के परिणाम स्वरुप व्यक्ति को संपत्ति से वंचित करने की आवश्यकता महसूस की गयी .संपत्ति को मार्क्स की विवेचनाओं में आधुनिक आद्योगिक समाज की कुंजी भी माना गया .उत्पादन स्रोतों के स्वामी होने के कारण पूंजीपति प्रभावशाली ढंग से समाज पर नियंत्रण स्थापित करने लगे .मार्क्स के सिद्धांतों में इस पूंजीवादी नियंत्रण को समुदाय के हाथों में स्थानांतरित करने का औचित्य प्रतिपादित किया गया .समय के बदलते स्तरों के साथ साथ भूमि और उद्योगों का स्वामित्व स्थानांतरित होकर समुदाय के हाथों में आने लगा और फिर समुदाय इन्हीं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर ''नियंत्रण ''स्थापित करने में सफल हो सका ........[ TO BE CONTINUED ]
शालिनी कौशिक [एडवोकेट]
[कानूनी ज्ञान ]
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शुक्रवार (19-04-2013) के धरा खून से लाल, लाल पी एम् बनवाओ- चर्चा मंच 1219 (मयंक का कोना) पर भी होगी!
रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
माँ दुर्गा आप सबका कल्याण करें!
सूचनार्थ...सादर!
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी, अनुशरण कर्ता के सेंचुरी पूरा करने की बधाई!
जवाब देंहटाएंlatest post तुम अनन्त
अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंतेरे मन में राम [श्री अनूप जलोटा ]
अच्छी पहल है। यदि प्राचीन संदर्भों से जोड़ते हुए व्याख्या करने की बजाए,संगत ताज़ा अदालती फैसलों का हवाला दिया जा सके,तो उपादेयता और बढ़ जाएगी।
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी
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