गैंगरेप:मृत्युदंड पर बहस ज़रूरी

Smashing rape - stock photoKOLKATA - MARCH 16 : A Christian Nun standing in prayer during a candle light vigil to protest gang rape of an elderly nun near Ranaghat on March 16, 2015 at Allen Park in Kolkata, India. - stock photo
मृत्युदंड एक ऐसा दंड जिसका समर्थन और विरोध हमेशा से होता रहा है पर जब जब इसके विरोध की आवाज़ तेज हुई है तब तब कोई न कोई ऐसा अपराध सामने आता रहा है जिसने इसकी अनिवार्यता पर बल दिया है हालाँकि इसका  समर्थन और विरोध न्यायपालिका में भी रहा है किन्तु अपराध की नृशंसता इस दंड की समाप्ति के विरोध में हमेशा से खड़ी रही है और इसे स्वयं माननीय न्यायमूर्ति ए.पी.सेन ने ''कुंजू कुंजू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य क्रिमिनल अपील ५११ [१९७८] में स्वीकार किया है .
    ''कुंजू कुंजू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के वाद में अभियुक्त एक विवाहित व्यक्ति था जिसके दो छोटे बच्चे भी थे .उसका किसी युवती से प्रेम हो गया और उससे विवाह करने की नीयत से उसने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों की रात में सोते समय निर्मम हत्या कर दी .''
     इस वाद में यद्यपि न्यायाधीशों ने 2:1 मत से इन तीन हत्याओं के अभियुक्त की मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाना उचित समझा परन्तु न्यायमूर्ति ए .पी. सेन ने अपना विसम्मत मत व्यक्त करते हुए अवलोकन किया -
  '' अभियुक्त ने एक राक्षसी कृत्य किया है तथा अपनी पत्नी तथा उससे पैदा हुए दो निर्दोष नन्हे बच्चों की हत्या करने में भी वह नहीं हिचकिचाया , यदि इस प्रकार के मामले में भी मृत्युदंड न दिया जाये तो मुझे समझ में नहीं आता कि मृत्युदंड और किस प्रकार के मामलों में दिया जा सकता है .''
    उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ए .आई. आर १९७९ एस. सी. ९१६ के वाद में जोर देकर कहा कि जहाँ हत्या जानबूझकर , पूर्वनियोजित , नृशंस तथा बर्बरतापूर्ण ढंग से की गयी हो तथा इसके लिए कोई परिशमनकारी  परिस्थितियां न हों वहां सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से मृत्युदंड अनिवार्य रूप से दिया ही जाना चाहिए
      न्यायमूर्ति ए.पी.सेन ने एक अन्य वाद में भी मृत्युदंड के सम्बन्ध में कहा -'' दंड के प्रति मानवीय दृष्टिकोण की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए . यदि कोई व्यक्ति किसी निर्दोष व्यक्ति की नृशंस और पूर्व नियोजित ढंग से हत्या करता है तो उसकी बर्बरता से न्यायालय की आत्मा दहल जाती है अतः उसे अपने कृत्य का परिणाम भुगतना ही चाहिए . ऐसे व्यक्तियों को जीवित रहने के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए .''
     मृत्युदंड की वैधानिकता को निर्णीत करने का अवसर उच्चतम न्यायालय को एक बार फिर ''वचन सिंह बनाम पंजाब राज्य के वाद में मिला ए.आई.आर.१९८० सुप्रीम कोर्ट ८९८ ''के वाद में मिला .इस वाद में ५ न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ४:१ से विनिश्चित किया कि मृत्युदंड आजीवन कारावास के दंड के विकल्प के रूप में एक वैधानिक दंड है अतः यह अनुचित नहीं है और अनुच्छेद १४ , १९,तथा २१ का उल्लंघन नहीं करता है .......मृत्युदंड को वैकल्पिक दंड के रूप में उचित और आवश्यक ठहराते हुए उच्च न्यायालय ने अभिकथन किया कि मृत्युदंड को समाप्त किये जाने के विचार का समर्थन किये जाने के बावजूद विश्व के अनेक विद्वानों ने  [ जिसमे समाजशास्त्री ,विधिशास्त्री , न्यायविद तथा प्रशमनीय अधिकारी भी सम्मिलित हैं ] यह स्वीकार किया है कि सामाजिक सुरक्षा के लिए मृत्युदंड को यथावत बनाये रखना आवश्यक है तथापि बहुमत ने यह स्वीकार किया कि मृत्युदंड के प्रशासनीय परिस्थितियों का निर्वचन उदारता से किया जाना चाहिए ताकि इस दंड का उपयोग बिरले से बिरले मामलों में ही किया जाये ताकि मानव जीवन की गरिमा बनी रहे .
    मानव जीवन की गरिमा का विचार अपराध के कारण को विचारकर भले ही न्यायालय या सुधारवादी कर लें किन्तु एक अपराध ऐसा है जिसमे मानव जीवन की गरिमा या उदारता का विचार अपराधी के सम्बन्ध में आना एक असहनीय बात प्रतीत होती है .वह अपराध है '' बलात्कार '' ,जिसमे अपराधी द्वारा पीड़ित की मानव जीवन की गरिमा को तार-तार कर दिया जाता है और पीड़िता ही वह व्यक्ति होती है जो अपने साथ हुए इस अपराध का दोहरा दंड भोगती है जबकि उसकी गलती मात्र एक होती है और वह है  '' नारी शरीर '' , जो उसे प्रकृति प्रदत्त होता है जिसमे वह स्वयं कुछ नहीं कर सकती है और इस सबके बावजूद उसके साथ अपराध घटित होने पर ये कानून और ये समाज दोनों ही उसके साथ खड़े नहीं होते और स्वयं के साथ अपराध के कारणों में उसकी कमी भी ढूंढी जाती है जो अपराधी के लिए फायदेमंद साबित होती है और वह एक निर्दोष के मानव जीवन की गरिमा का हरण कर भी आसानी से बरी हो जाता है .
    १६ दिसंबर २०१२ को निर्भया गैंगरेप कांड के बाद हुए जनांदोलन के दबाव में भारतीय दंड संहिता में धारा ३७६ में बहुत से संशोधन किये गए जिसमे धारा ३७६ घ के रूप में सामूहिक बलात्संग सम्बन्धी धारा भी जोड़ी गयी ,जिसमे कहा गया कि -

''३७६-घ -सामूहिक बलात्संग -जहाँ किसी स्त्री से , एक या अधिक व्यक्तियों द्वारा एक समूह गठित करके या सामान्य आशय को अग्रसर करने में कार्य करते हुए बलात्संग किया जाता है , वहां उन व्यक्तियों में से प्रत्येक के बारे में यह समझा जायेगा कि उसने बलात्संग का अपराध किया है और वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से , जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम नहीं होगी , किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा , दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा .
      परन्तु ऐसा जुर्माना पीड़िता के चिकित्सीय खर्चों को पूरा करने और पुनर्वास के लिए न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा ;
           परन्तु यह और कि इस धारा के अधीन अधिरोपित कोई जुर्माना पीड़िता को संदत्त किया जायेगा . ''
                  और इसी संशोधन के द्वारा एक धारा ३७६ ड़ का अन्तःस्थापन भी किया गया जिसमे इस अपराध के पुनरावृत्ति कर्ता के अपराधियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया गया .
     अब सवाल ये उठता है कि जो अपराधी उदारता जैसे मानवीय गुणों से दूर है जिसमे मानवीय संवेदनाएं हैं ही नहीं ,एक नारी  शरीर मात्र जिनकी कई की सोचने समझने की शक्ति एक साथ  विलुप्त कर उनमे मात्र हवस वासना जैसे भावों को ही उभारता है क्या उनके लिए कानून या समाज में दया करुणा जैसे भावों से भरे दंड के भाव होने चाहियें ?

    अभी २३ अक्टूबर २०१५ को दिल्ली से रावण दहन देखकर परिवार के साथ वापस आ रही १४ साल की किशोरी का जौंती मार्ग से अपहरण किया गया ,फिर पांच दरिंदों द्वारा उसके साथ गैंगरेप किया गया , उसकी हत्या की गयी और शव दफना दिया गया .पकडे गए आरोपियों के अनुसार ,''वह फुट-फूटकर गुहार लगा रही थी मुझे बख्श दो ,जाने दो लेकिन जितना वो चीखी चिल्लाई उतना ही उन दरिंदों की हैवानियत बढ़ती गयी ,दो घंटे तक वे उसका जिस्म नोचते रहे और जब लगा कि वह उन्हें पहचान लेगी तो ईंट मारकर उसे बेसुध कर दिया ,चुन्नी से गला घोंट दिया और मिटटी में शव दफ़न कर दिया और ये सब बताते वक्त आरोपियों के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई .क्या ऐसे में भी अपराधियों के द्वारा पुनरावृत्त इस अपराध की सम्भावना पर ही मृत्युदंड का विचार किया जाना चाहिए ?क्या एक किशोरी की मानव जीवन की गरिमा को तार-तार करने वालों की मानवीय जीवन की गरिमा का विचार करना चाहिए ?कहा जा सकता है कि बलात्कार के बाद हत्या में फांसी होती ही है किन्तु यदि ये ऐसे बलात्कार के बाद उसे छोड़ भी देते तो क्या उसके जीवन का उसके लिए कोई अर्थ रह गया था ? क्या आजीवन कारावास उन्हें सुधारने की क्षमता रखता है जो इतने अत्याचार करने के बाद भी सहज हैं ?
   गैंगरेप एक ऐसा अपराध है जिसके लिए निर्विवाद रूप से मृत्युदंड का प्रावधान होना ही चाहिए क्योंकि एक नारी शरीर किसी एक की उत्तेजना को भले ही एक समय में बढ़ा दे किन्तु एक समूह को एकदम वहशी बना दे ऐसा संभव नहीं है ऐसा सोची समझी रणनीति के तहत ही होता है और जहाँ दिमाग काम करता है वहां दंड भी दिमाग के स्तर का ही होना चाहिए दिल के स्तर का नहीं और ऐसे में इस मामले के पांचों आरोपियों के मृत्युदंड के साथ ही गैंगरेप के समस्त मामलों में मृत्युदंड का ही प्रावधान होना चाहिए .
शालिनी कौशिक
    [कानूनी ज्ञान ]

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मृतक का आश्रित :अनुकम्पा नियुक्ति

वसीयत और मरणोपरांत वसीयत

हिन्दू विधवा पुनर्विवाह बाद भी उत्ताधिकारी