संपत्ति का अधिकार -४
संपत्ति का अधिकार -४
मूल अधिकार से अंतर -
मूल अधिकार व् सामान्य विधिक अधिकार में अंतर यह है कि सामान्य विधिक अधिकार विधान पालिका की कृपा पर व्यक्तियों को सुलभ होते हैं ,मूल अधिकार स्वयं संविधान द्वारा उसी रूप में प्रदत्त होता है .सामान्य विधिक अधिकार विधायकों द्वारा किसी भी समय समाप्त अथवा न्यून किये जा सकते हैं परन्तु मूल अधिकार उनकी पहुँच से उस सीमा तक बाहर रहते हैं ,जिस सीमा तक अथवा जिस विधि से स्वयं संविधान उनकी पहुँच से दूर रहता है .सामान्य विधिक अधिकारों के विपरीत सामान्य न्यायपालिका से ही उपचार प्राप्त हो सकता है परन्तु मूल अधिकार देश की सर्वोच्च विधि संविधान और सर्वोच्च न्यायलय द्वारा सुरक्षित होते हैं .
संपत्ति क्या है -
संपत्ति शब्द की न्यायालयों ने बड़ी विशद व्याख्या की है .उनके मतानुसार संपत्ति शब्द में वे सभी मान्य हित शामिल हैं जिनमे स्वामित्व से सम्बंधित अधिकारों के चिन्ह या गुण पाए जाते हैं .सामान्य अर्थ में 'संपत्ति' शब्द के अंतर्गत वे सभी प्रकार के हित शामिल हैं जिनका अंतरण किया जा सकता है ;जैसे पट्टेदारी या बन्धकी [कमिश्नर हिन्दू रेलिजन्स इन्दौमेन्ट बनाम लक्ष्मीचंद ए.आई.आर .१९५४ एस.सी.२८४ इस प्रकार इसके अंतर्गत मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के अधिकार शामिल हैं [द्वारका दास श्री निवास बनाम शोलापुर स्पिनिंग एंड विविंग कंपनी ए.आई.आर .१९५४ एस.सी. ११९ ]जैसे रुपया ,संविदा ,संपत्ति के हिस्से ,लाइसेंस ,बंधक ,वाद दायर करने का धिकार ,डिक्री ,ऋण ,हिन्दू मंदिर में महंत का पद ,कंपनी में अंशधारियों के हित आदि .'पेंशन 'पाने का अधिकार संपत्ति है . पेंशन सरकार की इच्छा और प्रसाद के अनुसार अभिदान नहीं है .इसे कार्यपालिका आदेश द्वारा नहीं लिखा जा सकता है [आल इंडिया रिजर्व बैंक अधिकारी संघ बनाम भारत संघ ए.आई.आर.१९९२ एस.सी.१६७ ]
विधि के प्राधिकार के बिना वैयक्तिक संपत्ति से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है -
अनुच्छेद ३००-क यह उपबंधित करता है कोई भी व्यक्ति विधि के प्राधिकार के बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा .इसका तात्पर्य यह है कि राज्य को वैयक्तिक संपत्ति लेने का अधिकार प्राप्त है किन्तु ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का प्राधिकार प्राप्त होना चाहिए .कार्यपालिका के आदेश द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता ,राज्य ऐसा केवल विधायनी शक्ति के प्रयोग द्वारा ही कर सकता है .वजीर चंद बनाम ए.पी.राज्य ए.आई.आर.१९५८ एस.सी.९२ के मामले में जम्मू और कश्मीर की पुलिस के आदेश द्वारा पिटिशनर की संपत्ति जब्त कर ली गयी थी .उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधि के प्राधिकार के बिना पिटिशनर की संपत्ति जब्त करना अविधिमान्य था .
अनुच्छेद ३००-क का संरक्षण नागरिक व् अनागरिक दोनों को समान रूप से प्राप्त है .यह अनुच्छेद राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है व्यक्ति के विरुद्ध नहीं [पी.डी.सम्दसनी बनाम सेन्ट्रल बैंक ए.आई.आर १९५२ एस.सी.५९]to be continued ............]
शालिनी कौशिक
मूल अधिकार से अंतर -
मूल अधिकार व् सामान्य विधिक अधिकार में अंतर यह है कि सामान्य विधिक अधिकार विधान पालिका की कृपा पर व्यक्तियों को सुलभ होते हैं ,मूल अधिकार स्वयं संविधान द्वारा उसी रूप में प्रदत्त होता है .सामान्य विधिक अधिकार विधायकों द्वारा किसी भी समय समाप्त अथवा न्यून किये जा सकते हैं परन्तु मूल अधिकार उनकी पहुँच से उस सीमा तक बाहर रहते हैं ,जिस सीमा तक अथवा जिस विधि से स्वयं संविधान उनकी पहुँच से दूर रहता है .सामान्य विधिक अधिकारों के विपरीत सामान्य न्यायपालिका से ही उपचार प्राप्त हो सकता है परन्तु मूल अधिकार देश की सर्वोच्च विधि संविधान और सर्वोच्च न्यायलय द्वारा सुरक्षित होते हैं .
संपत्ति क्या है -
संपत्ति शब्द की न्यायालयों ने बड़ी विशद व्याख्या की है .उनके मतानुसार संपत्ति शब्द में वे सभी मान्य हित शामिल हैं जिनमे स्वामित्व से सम्बंधित अधिकारों के चिन्ह या गुण पाए जाते हैं .सामान्य अर्थ में 'संपत्ति' शब्द के अंतर्गत वे सभी प्रकार के हित शामिल हैं जिनका अंतरण किया जा सकता है ;जैसे पट्टेदारी या बन्धकी [कमिश्नर हिन्दू रेलिजन्स इन्दौमेन्ट बनाम लक्ष्मीचंद ए.आई.आर .१९५४ एस.सी.२८४ इस प्रकार इसके अंतर्गत मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के अधिकार शामिल हैं [द्वारका दास श्री निवास बनाम शोलापुर स्पिनिंग एंड विविंग कंपनी ए.आई.आर .१९५४ एस.सी. ११९ ]जैसे रुपया ,संविदा ,संपत्ति के हिस्से ,लाइसेंस ,बंधक ,वाद दायर करने का धिकार ,डिक्री ,ऋण ,हिन्दू मंदिर में महंत का पद ,कंपनी में अंशधारियों के हित आदि .'पेंशन 'पाने का अधिकार संपत्ति है . पेंशन सरकार की इच्छा और प्रसाद के अनुसार अभिदान नहीं है .इसे कार्यपालिका आदेश द्वारा नहीं लिखा जा सकता है [आल इंडिया रिजर्व बैंक अधिकारी संघ बनाम भारत संघ ए.आई.आर.१९९२ एस.सी.१६७ ]
विधि के प्राधिकार के बिना वैयक्तिक संपत्ति से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है -
अनुच्छेद ३००-क यह उपबंधित करता है कोई भी व्यक्ति विधि के प्राधिकार के बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा .इसका तात्पर्य यह है कि राज्य को वैयक्तिक संपत्ति लेने का अधिकार प्राप्त है किन्तु ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का प्राधिकार प्राप्त होना चाहिए .कार्यपालिका के आदेश द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता ,राज्य ऐसा केवल विधायनी शक्ति के प्रयोग द्वारा ही कर सकता है .वजीर चंद बनाम ए.पी.राज्य ए.आई.आर.१९५८ एस.सी.९२ के मामले में जम्मू और कश्मीर की पुलिस के आदेश द्वारा पिटिशनर की संपत्ति जब्त कर ली गयी थी .उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधि के प्राधिकार के बिना पिटिशनर की संपत्ति जब्त करना अविधिमान्य था .
अनुच्छेद ३००-क का संरक्षण नागरिक व् अनागरिक दोनों को समान रूप से प्राप्त है .यह अनुच्छेद राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है व्यक्ति के विरुद्ध नहीं [पी.डी.सम्दसनी बनाम सेन्ट्रल बैंक ए.आई.आर १९५२ एस.सी.५९]to be continued ............]
शालिनी कौशिक
VERY INFORMATIVE POST .THANKS
जवाब देंहटाएंअच्छी और संग्रहणीय जानकारी
जवाब देंहटाएंसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें .
Achchhi Jaankaari...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने जानकारी दी है भरपूर .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी दी आपने
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारी...
जवाब देंहटाएंउपयोगी जानकारी...
जवाब देंहटाएंAchchhi Jaankaari...
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