मृत्युदंड की तब्दीली :प्रश्नचिन्ह अब जाकर क्यूँ ?
मृत्युदंड को उम्रकैद में तब्दील करना गैरकानूनी :यह कहते हुए केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के निर्णय के लिए पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की .
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४३३ दंडादेश के लघुकरण की शक्ति के बारे में कहती है -
समुचित सरकार दण्डादिष्ट व्यक्ति को सम्मति के बिना -
[क] मृत्यु दंडादेश को भारतीय दंड संहिता [१८६० का ४५ ]द्वारा उपबंधित किसी अन्य दंड के रूप में लघुकृत कर सकेगा ;
[ख] आजीवन कारावास के दंडादेश का ,चौदह वर्ष से अनधिक अवधि के कारावास में या जुर्माने में लघुकृत कर सकेगी ;
[ग] कठिन कारावास के दंडादेश का किसी ऐसी अवधि के सादा कारावास में ,जिसके लिए वह व्यक्ति दण्डादिष्ट किया जा सकता हो ,या जुर्माने के रूप में लघुकरण कर सकेगी ,
[घ] सादा कारावास के दंडादेश को लघुकरण कर सकेगी .
समुचित सरकार के सम्बन्ध में हनुमंतदास बनाम विनय कुमार और अन्य तथा स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश बनाम विनय कुमार और अन्य ए.आई.आर .१९८२ एस.सी.१०५२ में उच्चतम न्यायालय ने कहा -पद ''समुचित सरकार ''से अभिप्राय उस सरकार [राज्य ]से है जिसमे अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया है ,न कि उस सरकार [राज्य] से जिसमे अपराध कारित किया गया था .
अर्थात यदि केंद्र के कानून से अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है तो केंद्र समुचित सरकार है और यदि राज्य के कानून से अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है तो राज्य समुचित सरकार है .
और इस प्रकार मृत्यु के दंडादेश का लघुकरण आजीवन कारावास में करने का अधिकार समुचित सरकार का है उच्चतम न्यायालय का नहीं किन्तु अब जब २१ जनवरी को उच्चतम न्यायालय ने १५ कैदियों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया जिससे राजीव गांधी के हत्यारों के लिए भी इस तरह की राहत का रास्ता साफ हुआ तब जाकर केंद्र ने इस पर संज्ञान लिया जब कि उच्चतम न्यायालय इससे पहले भी उत्तर प्रदेश राज्य बनाम लल्लू ए.आई.आर.१९८६ सु.कोर्ट.५७६ में ,मुकुंद उर्फ़ कुंदु मिश्रा बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए.आई.आर.१९९७ एस.सी.२६२२ में भी मृत्यु दंड को आजीवन कारावास में लघुकृत कर चूका है .
सवाल उठते हैं कि आखिर कानून बनाने और उसका पालन कराने वाली ये संस्थाएं ही कानून का उल्लंघन क्यूँ करती हैं ?आखिर जब कोई मामला हद से आगे बढ़ जाता है तब ही इन संस्थाओं के द्वारा कार्यवाही के लिए कदम क्यूँ उठाया जाता है ?और जब संविधान द्वारा कानून व् न्याय की सर्वोच्च संरक्षकता उच्चतम न्यायालय को सौंपी गयी है तो यहाँ उसका अधिकार समुचित सरकार को क्यूँ सौंप दिया गया ?जिसमे शिक्षा की,अनुभव की कोई बाध्यता नहीं जबकि न्यायपालिका सँभालने वाली शख्सियत का निश्चित स्तर तक शिक्षित व् अनुभवी होना आवश्यक है .प्रशासन की व्यवस्था देखने वाली यह समुचित सरकार बस यहीं तक सीमित होनी चाहिए .कानून बनाने व् न्याय की दिशा -दशा निर्धारित करने का कार्य पूर्णरूपेण न्यायपालिका के अधीन होना चाहिए अन्यथा आपराधिक मामलों में ये खास व् आम का अंतर चलता ही रहेगा और न्याय कहीं सींखचों में पड़ा अपनी दशा पर आंसूं बहाने को विवश रहेगा .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४३३ दंडादेश के लघुकरण की शक्ति के बारे में कहती है -
समुचित सरकार दण्डादिष्ट व्यक्ति को सम्मति के बिना -
[क] मृत्यु दंडादेश को भारतीय दंड संहिता [१८६० का ४५ ]द्वारा उपबंधित किसी अन्य दंड के रूप में लघुकृत कर सकेगा ;
[ख] आजीवन कारावास के दंडादेश का ,चौदह वर्ष से अनधिक अवधि के कारावास में या जुर्माने में लघुकृत कर सकेगी ;
[ग] कठिन कारावास के दंडादेश का किसी ऐसी अवधि के सादा कारावास में ,जिसके लिए वह व्यक्ति दण्डादिष्ट किया जा सकता हो ,या जुर्माने के रूप में लघुकरण कर सकेगी ,
[घ] सादा कारावास के दंडादेश को लघुकरण कर सकेगी .
समुचित सरकार के सम्बन्ध में हनुमंतदास बनाम विनय कुमार और अन्य तथा स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश बनाम विनय कुमार और अन्य ए.आई.आर .१९८२ एस.सी.१०५२ में उच्चतम न्यायालय ने कहा -पद ''समुचित सरकार ''से अभिप्राय उस सरकार [राज्य ]से है जिसमे अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया है ,न कि उस सरकार [राज्य] से जिसमे अपराध कारित किया गया था .
अर्थात यदि केंद्र के कानून से अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है तो केंद्र समुचित सरकार है और यदि राज्य के कानून से अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है तो राज्य समुचित सरकार है .
और इस प्रकार मृत्यु के दंडादेश का लघुकरण आजीवन कारावास में करने का अधिकार समुचित सरकार का है उच्चतम न्यायालय का नहीं किन्तु अब जब २१ जनवरी को उच्चतम न्यायालय ने १५ कैदियों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया जिससे राजीव गांधी के हत्यारों के लिए भी इस तरह की राहत का रास्ता साफ हुआ तब जाकर केंद्र ने इस पर संज्ञान लिया जब कि उच्चतम न्यायालय इससे पहले भी उत्तर प्रदेश राज्य बनाम लल्लू ए.आई.आर.१९८६ सु.कोर्ट.५७६ में ,मुकुंद उर्फ़ कुंदु मिश्रा बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए.आई.आर.१९९७ एस.सी.२६२२ में भी मृत्यु दंड को आजीवन कारावास में लघुकृत कर चूका है .
सवाल उठते हैं कि आखिर कानून बनाने और उसका पालन कराने वाली ये संस्थाएं ही कानून का उल्लंघन क्यूँ करती हैं ?आखिर जब कोई मामला हद से आगे बढ़ जाता है तब ही इन संस्थाओं के द्वारा कार्यवाही के लिए कदम क्यूँ उठाया जाता है ?और जब संविधान द्वारा कानून व् न्याय की सर्वोच्च संरक्षकता उच्चतम न्यायालय को सौंपी गयी है तो यहाँ उसका अधिकार समुचित सरकार को क्यूँ सौंप दिया गया ?जिसमे शिक्षा की,अनुभव की कोई बाध्यता नहीं जबकि न्यायपालिका सँभालने वाली शख्सियत का निश्चित स्तर तक शिक्षित व् अनुभवी होना आवश्यक है .प्रशासन की व्यवस्था देखने वाली यह समुचित सरकार बस यहीं तक सीमित होनी चाहिए .कानून बनाने व् न्याय की दिशा -दशा निर्धारित करने का कार्य पूर्णरूपेण न्यायपालिका के अधीन होना चाहिए अन्यथा आपराधिक मामलों में ये खास व् आम का अंतर चलता ही रहेगा और न्याय कहीं सींखचों में पड़ा अपनी दशा पर आंसूं बहाने को विवश रहेगा .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
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