ए.पी.सिंह का वकालत का रजिस्ट्रेशन निरस्त करे बार कौंसिल
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Bar Council notice to defense Lawyer of the Rapists and murderers of Gang Rape. Similar Notice should be given to senior lawyer of Fraudman
Retweeted by shalini kaushik
Expandअभी अभी रंजना कुमारी जी की ये ट्वीट पढ़ी और सच कहूं तो बहुत अच्छा लगा कि बार कौंसिल ने ए.पी.सिंह के खिलाफ एक सही कदम उठाया .आज बहुत से वकील अपनी सीमा को पार कर रहे हैं क्योंकि उनके मन में वकील बनने की चाहत पैदा होने का एक सबसे बड़ा कारण आज ये है कि इससे अपने हाथ में अथॉरिटी अर्थात अधिकारिता आती है
बार कौंसिल का ये कदम सही है क्योंकि बार कौंसिल वकीलों की सर्वोच्च संस्था है और वकीलों पर नियंत्रण का कार्य यही संस्था कर सकती है और करती भी है .
अधिवक्ता ए.पी. सिंह इस मामले में अपनी हार को पचा नहीं पा रहे हैं और दामिनी मामले को एक अलग ही मोड़ देने की चेष्टा कर रहे हैं .जहाँ तक दामिनी मामले का सवाल है वहां तक तो उनकी बात कहीं से लेकर कहीं तक भी सही नहीं बैठती किन्तु यदि कोई लड़की विवाह पूर्व सम्बन्ध रखती भी है और रात को देर से घर लौटती भी है तो कोई कानून भी किसी को यह हक़ नहीं देता कि उसके साथ बलात्कार किया जाये .
अधिवक्ता ए.पी. सिंह इस मामले में अपनी हार को पचा नहीं पा रहे हैं और दामिनी मामले को एक अलग ही मोड़ देने की चेष्टा कर रहे हैं .जहाँ तक दामिनी मामले का सवाल है वहां तक तो उनकी बात कहीं से लेकर कहीं तक भी सही नहीं बैठती किन्तु यदि कोई लड़की विवाह पूर्व सम्बन्ध रखती भी है और रात को देर से घर लौटती भी है तो कोई कानून भी किसी को यह हक़ नहीं देता कि उसके साथ बलात्कार किया जाये .
दामिनी मामला एक ऐसा मामला है जिसने देश की जनता को इस दिशा में सोचने को मजबूर किया कि वाकई हम पीडिता के साथ अपराधियों वाला व्यवहार क्यूं करते हैं न केवल सामान्य जनता बल्कि अदालतों में भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता रहा जिसके कारण कितनी ही बलात्कार पीडितायें आत्महत्या को मजबूर हुई और कितने ही बलात्कारी समाज में सम्मान से जीते रहे किन्तु कानून ने इस और ध्यान दिया २००३ में और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा १४६ में संशोधन किया जिसमे कहा गया -
''भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ [१८७२ का १][जिसे एतास्मिन्पश्चात मूल अधिनियम कहा जायेगा ]की धारा १४६ में खंड [३] के बाद ,निम्नलिखित परन्तुक अन्तः स्थापित किया जायेगा ,अर्थात -
''परन्तु बलात्संग या बलात्संग करने के प्रयत्न के लिए अभियोजन में ,अभियोक्त्री की प्रतिपरीक्षा में उसके साधारणतः व्यभिचार के सम्बन्ध में प्रश्न पूछना अनुज्ञेय नहीं होगा .''
इसके साथ ही धारा १५५ में भी संशोधन किया गया इस संशोधन द्वारा धारा १५५ के खंड [४] का लोप किया गया जो कि निम्न प्रकार थी -
''जबकि कोई मनुष्य बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न के लिए अभियोजित है ,तब यह दर्शित किया जा सकता है कि अभियोक्त्री साधारणतः व्यभिचारिणी है .''
अब इन संशोधनों का यह परिणाम है कि बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न में अभियोजन में ,जब अभियोक्त्री साक्षी के कठघरे में हो और उसकी प्रतिपरीक्षा की जा रही हो ,तो उसके अनैतिक चरित्र के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं पूछ जा सकता और अभियुक्त अपनी प्रतिपरीक्षा में यह दर्शित नहीं कर सकता कि अभियोक्त्री ,अर्थात बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न से पीड़ित महिला अनैतिक चरित्र की है अर्थात व्यभिचारिणी है .''
''भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ [१८७२ का १][जिसे एतास्मिन्पश्चात मूल अधिनियम कहा जायेगा ]की धारा १४६ में खंड [३] के बाद ,निम्नलिखित परन्तुक अन्तः स्थापित किया जायेगा ,अर्थात -
''परन्तु बलात्संग या बलात्संग करने के प्रयत्न के लिए अभियोजन में ,अभियोक्त्री की प्रतिपरीक्षा में उसके साधारणतः व्यभिचार के सम्बन्ध में प्रश्न पूछना अनुज्ञेय नहीं होगा .''
इसके साथ ही धारा १५५ में भी संशोधन किया गया इस संशोधन द्वारा धारा १५५ के खंड [४] का लोप किया गया जो कि निम्न प्रकार थी -
''जबकि कोई मनुष्य बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न के लिए अभियोजित है ,तब यह दर्शित किया जा सकता है कि अभियोक्त्री साधारणतः व्यभिचारिणी है .''
अब इन संशोधनों का यह परिणाम है कि बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न में अभियोजन में ,जब अभियोक्त्री साक्षी के कठघरे में हो और उसकी प्रतिपरीक्षा की जा रही हो ,तो उसके अनैतिक चरित्र के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं पूछ जा सकता और अभियुक्त अपनी प्रतिपरीक्षा में यह दर्शित नहीं कर सकता कि अभियोक्त्री ,अर्थात बलात्संग या बलात्संग के प्रयत्न से पीड़ित महिला अनैतिक चरित्र की है अर्थात व्यभिचारिणी है .''
इस प्रकार कानून के रक्षक ही अगर इस तरह की गलत बयानबाजी करेंगे तो अन्य किससे कानून के पालन की उम्मीद की जा सकती है और उस पर इस तरह की बयानबाजी जिससे वे न केवल पीडिता को ही अपराध की दोषी की श्रेणी प्रदान कर रहे हैं वरन सभी लड़कियों के प्रति अपने हिंसात्मक रवैय्ये को दर्शित कर रहे हैं जो कि कानून किसी को भी नहीं देता इसलिए यही कहना पड़ रहा है कि ऐसे हाथों में कानून की हिफाज़त का सौंपा जाना कानून का खतरे में होना ही दर्शित करते हैं और ऐसे में इन हाथों से कानून की निगहबानी का कार्य छीन ही लिया जाना चाहिए .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]
वकील यदि मर्यादायों की सीमा पर कर जाय तो उस पर भी नकेल कसना जरुरी है
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