कोई कानूनी विषमता नहीं ३०२ व् ३०४[बी ]आई.पी.सी.में
कोई कानूनी विषमता नहीं ३०२ व् ३०४[बी ]आई.पी.सी.में
17 सितम्बर 2012 दैनिक जागरण में पृष्ठ २ पर माला दीक्षित ने एक दोषी की दलील दी है जिसमे दहेज़ हत्या के दोषी ने अपनी ओर से एक अहम् कानूनी मुद्दा उठाया है .दोषी की दलील है -
''आई.पी.सी.की धारा ३०४ बी [दहेज़ हत्या ]और धारा ३०२ [हत्या ]में एक साथ मुकदमा नहीं चलाया जा सकता .दोनों धाराओं में बर्डन ऑफ़ प्रूफ को लेकर कानूनी विषमता है जो दूर होनी चाहिए .''
धारा ३०२ ,जिसमे हत्या के लिए दंड का वर्णन है और धारा ३०४ बी आई.पी.सी.में दहेज़ मृत्यु का वर्णन है और जहाँ तक दोनों धाराओं में सबूत के भार की बात है तो दांडिक मामले जिसमे धारा ३०२ आती है में सबूत का भार अभियोजन पर है क्योंकि दांडिक मामलों में न्यायालय यह उपधारना करता है कि अभियुक्त निर्दोष है अतः सबूत का भार अभियोजन पर है कि वह दोषी है .
दूसरी ओर दहेज़ मृत्यु के मामले में धरा ३०४-बी जो कि सन १९८६ में १९.११.८६ अधिनियम ४३ से जोड़ी गयी ,में न्यायालय यह उपधारना करेगा कि उस व्यक्ति ने दहेज़ मृत्यु कारित की है .
दहेज़ मृत्यु के विषय में धारा ३०४-बी आई.पी.सी.कहती है कि जब विवाह के सात वर्ष के अन्दर किसी स्त्री की मृत्यु जल जाने से या शारीरिक क्षति से या सामान्य परिस्थितियों से भिन्न परिस्थितियों में हो जाये व् यह दर्शित किया जाता है कि मृत्यु के ठीक पूर्व पति या पति के नातेदारों द्वारा दहेज़ के लिए मांग को लेकर परेशान किया गया था अथवा उसके साथ निर्दयता पूर्वक व्यव्हार किया गया था तब इसे दहेज़ मृत्यु कहा जायेगा और मृत्यु का कारण पति व् पति के रिश्तेदारों को माना जायेगा .
साथ ही साक्ष्य अधिनियम की धारा ४ में यह बताया गया है कि न्यायालय यह उपधारना करेगा अर्थात न्यायालय यह साबित मान सकेगा जब तक नासबित न किया जाये .इस प्रकार यदि अभियोजन धारा ३०२ के अंतर्गत आरोपी का अपराध साबित करने में सफल रहता है तब भी धारा ३०४-बी में दहेज़ मृत्यु कारित न करने का भार दोषी व्यक्ति पर यथावत रहता है और यदि वह न्यायालय की इस उपधारना को नासबित करने में असफल रहता है तो वह हत्या और दहेज़ मृत्यु दोनों का दोषी माना जायेगा किन्तु यदि वह न्यायालय की इस उपधारना को नासबित करने में सफल हो जाता है तब उसे केवल हत्या का दोषी माना जायेगा जो कि उसपर साबित हो चुका है .
विवाह के सात वर्षों के भीतर विवाहिता की मृत्यु पर न्यायालय यह उपधारना कर लेता है कि यह दहेज़ मृत्यु है किन्तु बहुत से मामलों में न दहेज़ की मांग साबित हो पाती है न क्रूरता तब न्यायालय को अन्य धाराओं में अपराध का विश्लेषण कर दोषी को दण्डित करना होता है जैसे कि लखजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य १९९४ पूरक [१]s .c .c १७३[१७६] में अभियुक्तों के विरुद्ध मृतका को विष खिलने में प्रत्यक्ष हाथ साबित न होने के कारण उन्हें केवल ३०६ के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिए सिद्धदोष किया गया .
और बहुत से ऐसे मामले जिसमे पीड़ित की मृत्यु हत्या की श्रेणी में नहीं आ पाती क्योंकि हत्या के लिए धारा ३०० कहती है कि शारीरिक क्षति इस आशय से जिससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है या वह प्रकृति के मामूली अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त है या वह कार्य इतना आसन्न संकट है कि मृत्यु कारित कर ही देगा या ऐसी शारीरिक क्षति कारित कर देगा जिससे मृत्यु कारित होनी संभाव्य है ,ऐसे में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय बनाम टी.बासवा पुन्नेया तथा अन्य १९८९ क्रि.ला.जन.2330 आंध्र में विवाहिता को मारने पीटने के बाद आत्महत्या दिखाने के लिए एक बांस की सहायता से लुंगी बंधकर लटका दिया .मृत्यु दम घुटने से हुई .न्यायालय ने विवाह के तीन वर्षों के भीतर अप्राकृतिक स्थितयों में मृत्यु व् दहेज़ की मांग के तथ्य साबित होने के कारण मामले को ३०४-बी के अंतर्गत माना भले ही मृतका ने आत्महत्या की हो .
फिर न्यायालय इस सम्बन्ध में स्वयं जागरूक है .लेखराम बनाम पंजाब राज्य १९९९ s .c .c [क्रि]१२२ में उच्चतम न्यायालय ने समुचित सबूत के आभाव में अभियोजन पक्ष द्वारा लगाये गए दहेज़ हत्या के आरोप की सत्यता पर विश्वास करते हुए निर्दोषिता की सिद्धि का भार अभियुक्त पर डालना न्यायोचित नहीं माना और अभियुक्त को ३०२ एवं ३०४-बी के आरोप से दोषमुक्त किया .
साथ ही शमन साहेब एम् .मुठानी बनाम कर्णाटक राज्य ए.आई.आर एस.सी.९२१ में अभियुक्त ३०२ के बजाय ३०४ -बी का दोषी माना किन्तु इस सम्बन्ध में अभियुक्त को पूर्व सूचना ,उसे बचाव के लिए अवसर प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक माना और विचारण न्यायालय को ३०४-बी के अपराध के विचारण के लिए निर्देश दिए.
ऐसे में भले ही दोनों धाराओं में सबूत का भार अलग अलग पर हो किन्तु ऐसे में अभियुक्त का बचाव का अधिकार कहीं प्रभावित नहीं होता है .यदि अभियुक्त ने हत्या की है और विवाह के सात वर्षों के अन्दर की है तो वो दोनों धाराओं में दोषी है और ऐसे में अभियोजन की सफलता है व् न्यायालय की उपधारना साबित है और यदि दहेज़ मृत्यु नहीं की है तो वह अपना बचाव करेगा और अभियोजन को विफल करेगा .ऐसा नहीं है कि हर हत्या को दहेज़ मृत्यु की श्रेणी दे दी गयी हो या हर दहेज़ मृत्यु को हत्या की.उपरोक्त निर्णयों द्वारा न्यायालयों ने अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया है और ऐसी किसी विषमता को कहीं कोई स्थान नहीं दिया गया है .
17 सितम्बर 2012 दैनिक जागरण में पृष्ठ २ पर माला दीक्षित ने एक दोषी की दलील दी है जिसमे दहेज़ हत्या के दोषी ने अपनी ओर से एक अहम् कानूनी मुद्दा उठाया है .दोषी की दलील है -
''आई.पी.सी.की धारा ३०४ बी [दहेज़ हत्या ]और धारा ३०२ [हत्या ]में एक साथ मुकदमा नहीं चलाया जा सकता .दोनों धाराओं में बर्डन ऑफ़ प्रूफ को लेकर कानूनी विषमता है जो दूर होनी चाहिए .''
धारा ३०२ ,जिसमे हत्या के लिए दंड का वर्णन है और धारा ३०४ बी आई.पी.सी.में दहेज़ मृत्यु का वर्णन है और जहाँ तक दोनों धाराओं में सबूत के भार की बात है तो दांडिक मामले जिसमे धारा ३०२ आती है में सबूत का भार अभियोजन पर है क्योंकि दांडिक मामलों में न्यायालय यह उपधारना करता है कि अभियुक्त निर्दोष है अतः सबूत का भार अभियोजन पर है कि वह दोषी है .
दूसरी ओर दहेज़ मृत्यु के मामले में धरा ३०४-बी जो कि सन १९८६ में १९.११.८६ अधिनियम ४३ से जोड़ी गयी ,में न्यायालय यह उपधारना करेगा कि उस व्यक्ति ने दहेज़ मृत्यु कारित की है .
दहेज़ मृत्यु के विषय में धारा ३०४-बी आई.पी.सी.कहती है कि जब विवाह के सात वर्ष के अन्दर किसी स्त्री की मृत्यु जल जाने से या शारीरिक क्षति से या सामान्य परिस्थितियों से भिन्न परिस्थितियों में हो जाये व् यह दर्शित किया जाता है कि मृत्यु के ठीक पूर्व पति या पति के नातेदारों द्वारा दहेज़ के लिए मांग को लेकर परेशान किया गया था अथवा उसके साथ निर्दयता पूर्वक व्यव्हार किया गया था तब इसे दहेज़ मृत्यु कहा जायेगा और मृत्यु का कारण पति व् पति के रिश्तेदारों को माना जायेगा .
साथ ही साक्ष्य अधिनियम की धारा ४ में यह बताया गया है कि न्यायालय यह उपधारना करेगा अर्थात न्यायालय यह साबित मान सकेगा जब तक नासबित न किया जाये .इस प्रकार यदि अभियोजन धारा ३०२ के अंतर्गत आरोपी का अपराध साबित करने में सफल रहता है तब भी धारा ३०४-बी में दहेज़ मृत्यु कारित न करने का भार दोषी व्यक्ति पर यथावत रहता है और यदि वह न्यायालय की इस उपधारना को नासबित करने में असफल रहता है तो वह हत्या और दहेज़ मृत्यु दोनों का दोषी माना जायेगा किन्तु यदि वह न्यायालय की इस उपधारना को नासबित करने में सफल हो जाता है तब उसे केवल हत्या का दोषी माना जायेगा जो कि उसपर साबित हो चुका है .
विवाह के सात वर्षों के भीतर विवाहिता की मृत्यु पर न्यायालय यह उपधारना कर लेता है कि यह दहेज़ मृत्यु है किन्तु बहुत से मामलों में न दहेज़ की मांग साबित हो पाती है न क्रूरता तब न्यायालय को अन्य धाराओं में अपराध का विश्लेषण कर दोषी को दण्डित करना होता है जैसे कि लखजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य १९९४ पूरक [१]s .c .c १७३[१७६] में अभियुक्तों के विरुद्ध मृतका को विष खिलने में प्रत्यक्ष हाथ साबित न होने के कारण उन्हें केवल ३०६ के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिए सिद्धदोष किया गया .
और बहुत से ऐसे मामले जिसमे पीड़ित की मृत्यु हत्या की श्रेणी में नहीं आ पाती क्योंकि हत्या के लिए धारा ३०० कहती है कि शारीरिक क्षति इस आशय से जिससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है या वह प्रकृति के मामूली अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त है या वह कार्य इतना आसन्न संकट है कि मृत्यु कारित कर ही देगा या ऐसी शारीरिक क्षति कारित कर देगा जिससे मृत्यु कारित होनी संभाव्य है ,ऐसे में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय बनाम टी.बासवा पुन्नेया तथा अन्य १९८९ क्रि.ला.जन.2330 आंध्र में विवाहिता को मारने पीटने के बाद आत्महत्या दिखाने के लिए एक बांस की सहायता से लुंगी बंधकर लटका दिया .मृत्यु दम घुटने से हुई .न्यायालय ने विवाह के तीन वर्षों के भीतर अप्राकृतिक स्थितयों में मृत्यु व् दहेज़ की मांग के तथ्य साबित होने के कारण मामले को ३०४-बी के अंतर्गत माना भले ही मृतका ने आत्महत्या की हो .
फिर न्यायालय इस सम्बन्ध में स्वयं जागरूक है .लेखराम बनाम पंजाब राज्य १९९९ s .c .c [क्रि]१२२ में उच्चतम न्यायालय ने समुचित सबूत के आभाव में अभियोजन पक्ष द्वारा लगाये गए दहेज़ हत्या के आरोप की सत्यता पर विश्वास करते हुए निर्दोषिता की सिद्धि का भार अभियुक्त पर डालना न्यायोचित नहीं माना और अभियुक्त को ३०२ एवं ३०४-बी के आरोप से दोषमुक्त किया .
साथ ही शमन साहेब एम् .मुठानी बनाम कर्णाटक राज्य ए.आई.आर एस.सी.९२१ में अभियुक्त ३०२ के बजाय ३०४ -बी का दोषी माना किन्तु इस सम्बन्ध में अभियुक्त को पूर्व सूचना ,उसे बचाव के लिए अवसर प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक माना और विचारण न्यायालय को ३०४-बी के अपराध के विचारण के लिए निर्देश दिए.
ऐसे में भले ही दोनों धाराओं में सबूत का भार अलग अलग पर हो किन्तु ऐसे में अभियुक्त का बचाव का अधिकार कहीं प्रभावित नहीं होता है .यदि अभियुक्त ने हत्या की है और विवाह के सात वर्षों के अन्दर की है तो वो दोनों धाराओं में दोषी है और ऐसे में अभियोजन की सफलता है व् न्यायालय की उपधारना साबित है और यदि दहेज़ मृत्यु नहीं की है तो वह अपना बचाव करेगा और अभियोजन को विफल करेगा .ऐसा नहीं है कि हर हत्या को दहेज़ मृत्यु की श्रेणी दे दी गयी हो या हर दहेज़ मृत्यु को हत्या की.उपरोक्त निर्णयों द्वारा न्यायालयों ने अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया है और ऐसी किसी विषमता को कहीं कोई स्थान नहीं दिया गया है .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान]
अच्छा विमर्श है।
जवाब देंहटाएंदहेज हत्या जितनी बड़ी वास्तविकता है,उतनी ही बड़ी वास्तविकता स्त्री-पक्ष द्वारा इस क़ानून का दुरुपयोग किया जाना है। तमाम मुश्किलों के बावजूद,कमोबेश पुरूषों को सज़ा होती ही है,मगर शायद ही कभी सुना हो कि फर्ज़ी मामले में किसी महिला को सज़ा सुनाई गई। न्यायालय को इस मामले में भी अपनी न्यायप्रियता का परिचय देना चाहिए।
आप बहुत अच्छा कम कर रही हैं! शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंडॉ, पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9828502666
अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
upyogi jankari mili dhanyad kaushik ji
जवाब देंहटाएंसर मुझे जानकारी चाहिये कि भारतीय कानून कि धारा 306 आई पी सी में कितने दिनों में जमानत मिल जाती है ,प्रार्थी 25 दिनों से जेल में बंद है और प्रार्थी कि शादी को 9 बर्ष के बाद कि घटना है
जवाब देंहटाएंजब तीन महीने में चार्जशीट नहीं भेजी जाये तब जमानत मिलेगी .
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