धारा ३७५ -भारतीय दंड संहिता-एक आलोचनात्मक विश्लेषण


The Indian Penal Code, 1860
CitationAct No. 45 of 1860
Territorial extentWhole of India except the State of Jammu and Kashmir
Enacted byParliament of India
Date enacted6 October 1860
Date assented to6 October 1860
Date commenced6 October 1860
भारतीय दंड संहिता १८६० का अध्याय १६ का उप-अध्याय ''यौन अपराध ''से सम्बंधित है जिसमे धारा ३७५ कहती है-
[I.P.C.]
Central Government Act
Section 375 in The Indian Penal Code, 1860
375. Rape.-- A man is said to commit" rape" who, except in the case hereinafter excepted, has sexual intercourse with a woman under circumstances falling under any of the six following descriptions:-
First.- Against her will.
Secondly.- Without her consent.
Thirdly.- With her consent, when her consent has been obtained by putting her or any person in whom she is interested in fear of death or of hurt.
Fourthly.- With her consent, when the man knows that he is not her husband, and that her consent is given because she believes that he is another man to whom she is or believes herself to be lawfully married.
Fifthly.- With her consent, when, at the time of giving such consent, by reason of unsoundness of mind or intoxication or the administration by him personally or through another of any stupefying or unwholesome substance, she is unable to understand the nature and consequences of that to which she gives consent.
Sixthly.- With or without her consent, when she is under sixteen years of age.
Explanation.- Penetration is sufficient to constitute the sexual intercourse necessary to the offence of rape.
Exception.- Sexual intercourse by a man with his own wife, the wife not being under fifteen years of age, is not rape.
यौन उत्पीड़न एक ऐसा अपराध जिसमे पुरुष हमेशा शोषक व् नारी हमेशा पीड़ित की भूमिका में रहे हैं और इसी कारण कानून ने यहाँ भी इन्हें यही भूमिका दी है किन्तु विज्ञान के नए नए प्रयोग जोड़कर वर्त्तमान में कानून ने नारी की स्थिति को जो मजबूती दी है वह सुरक्षा पुरुष के व्यक्तित्व को नहीं दी या यूँ कहें कि नारी को जो सुरक्षा दी गयी है उसके कारण पुरुष की सुरक्षा आज खतरे में पड़ गयी है और कानून का काम न्याय है सभी के साथ न कि किसी एक के साथ .
नारी की प्राकृतिक दुर्बलता के कारण वह इस अपराध का शिकार बनती रही है किन्तु इसम भी दो राय नहीं कि वह इस धारा को पुरुष के खिलाफ हथियार रूप में इस्तेमाल करती भी आ रही है और इसका अवसर स्वयं कानून उसे दे रहा है इस तरह-
*यौन सम्बन्ध यदि नारी की इच्छा के विरुद्ध हैं तो यौन उत्पीड़न -किन्तु इच्छा है या नहीं इसका कोई निश्चित पैमाना नहीं .
*यौन सम्बन्ध यदि नारी की सहमति के बिना तो यौन उत्पीड़न -किन्तु सम्मति थी या नहीं इसे जानने का को तरीका नही .
इन दोनों ही तथ्यों को पुरुषों द्वारा भी नारी के विरुद्ध स्वयं के अपराध से पीछा छुड़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता रहा है और इस तरह नारी को अपने इस कृत्य में सहभागी दिखाया जाता रहा है किन्तु इसके साथ साथ आज नारी द्वारा भी पहले पुरुष को इसके भ्रम में डालकर और बाद में इसे हथियार बनाकर उस उत्पीड़न का दोषी बनाया जाता है जो कहीं न कहीं नारी के ही उकसावे का परिणाम था .
आज के समय में जब नारी पुरुष पर अपने फायदे के लिए यौन उत्पीड़न के झूठे इलज़ाम लगा रही है [ये कोई मनगढंत बात नहीं कर रही हूँ मैं बल्कि मैंने स्वयं ऐसी महिलाएं आज देखी हैं जो अपने प्रतिद्वंदी को दबाव में लेने के लिए कानून की इस सुरक्षा का नाजायज फायदा उठा रही हैं और उन्हें सलाखों के पीछे भिजवा रही हैं .]पूर्ण रूप से ब्याह रचाकर घर की समस्त नकदी जेवरात लेकर घर के पुरुषों को बेहोश कर फरार हो रही हैं ,अपने कैरियर को बुलंदी पर पहुँचाने के लिए स्वयं पुरुषों को अपने मोहजाल में फंसा रही हैं और आगे बढ़ रही हैं ऐसे में क्या यौन अपराध की जो स्थिति भारतीय दंड संहिता में रखी गयी है सही मानी जा सकती है ?
आज महिला सशक्तिकरण के नाम पर और हमेशा से पुरुषों के व्यभिचार के नाम पर दनादन सम्मानित शख्सियतों पर इलज़ाम लगाये जा रहे हैं और बगैर सबूत ,बगैर प्रमाणिकता के वे अपने पद त्याग को मजबूर किये जा रहे हैं जबकि अभी ये भी साफ़ नहीं कि उन्होंने वास्तव में ऐसा क्या या नहीं या उन्होंने ऐसा किया तो स्वयं किया या किसी उकसावे के परिणाम स्वरुप किया ,क्या ऐसे में भारतीय कानून में यौन अपराध की परिभाषा में परिवर्तन आवश्यक नहीं हो गया है ?
ये सत्य है कि पुरुषों के व्यभिचार का नारी को हमेशा से शिकार होना पड़ा है और इसीलिए कानून की मदद की वे पहली पात्र हैं किन्तु कानून का कार्य न्याय करना है और न्याय तभी होता है जब पीड़ित को इंसाफ मिले और दोषी को दंड .अभी हाल ही में रिटायर्ड जस्टिस गांगुली और जस्टिस स्वतंत्र कुमार पर यौन उत्पीड़न के लॉ इंटर्न द्वारा आरोप लगाये गए हैं और एकतरफा कार्यवाही झेलने के कारण जस्टिस गांगुली को तो अपने पद से इस्तीफा तक देना पड़ा है .यदि बाद में जस्टिस गांगुली दोषी साबित होते हैं तो ये सब सही कहा जायेगा किन्तु यदि वे निरपराध साबित होते हैं तो क्या कानून की इस प्रक्रिया द्वारा उन्हें उनका पद वापिस दिलवाया जा सकेगा और चलिए उन्हें उनका पद मिल भी गया तब भी क्या जो अपमान , मानसिक व् सामाजिक प्रताड़ना उन्हें व् उनके परिवारी जनों को [क्योंकि समाज में पुरुषों का एक वर्ग ऐसा भी है जो पुरुषों के द्वारा किये जा रहे इन गलत व् अभद्र कार्यों का विरोधी है और वह जितना स्वयं सम्मान से जीना जानता है उतना ही नारी जाति का सम्मान करना भी जानता है ] इस सब कार्यवाही से हो रही है उससे मिले घावों की भरपाई कर पायेगा .
इन्हीं सब कारणों से आज इस धारा में पूर्णरूपेण परिवर्तन की अपेक्षा है क्योंकि आज की नारी पहले की तरह मात्र आत्म-सम्मान की महत्वाकांक्षा नहीं रखती वरन आज उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ चुकी हैं और वह आज स्वयं को पुरुष से बढ़कर साबित करने की होड़ में कुछ भी कर गुजरने को तैयार है .ऐसे में आज बहुत सी जगह पुरुष को भी उससे वही सुरक्षा चाहिए जो उसे पुरुष से .इसलिए धारा ३७५ द्वारा परिभाषित यौन अपराध की परिभाषा में परिवर्तन होना ही चाहिए .
शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]

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