डिजिटल अधिकार भी मौलिक अधिकार - सुप्रीम कोर्ट


     सर्वोच्च न्यायालय ने 30 अप्रैल 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि डिजिटल एक्सेस जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है. यह फैसला डिजिटल समावेशन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों की डिजिटल सेवाओं तक पहुंच हो. 

     इस प्रकार भारत में डिजिटल अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों के रूप में संरक्षित हैं. अनुच्छेद 19  भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी भी व्यवसाय या व्यापार को करने के अधिकार की रक्षा करता है, जबकि अनुच्छेद 21 नागरिको को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. 

➡️ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19:-

यह अनुच्छेद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी भी व्यवसाय को करने के अधिकार की रक्षा करता है आज के युग में डिजिटल एक्सेस व्यावसायिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन चुका है जिसका प्रयोग इन्टरनेट आदि के माध्यम से किया जाता है जिससे लोग इंटरनेट का उपयोग करके अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं, जानकारी प्राप्त कर रहे हैं, और ऑनलाइन व्यवसाय कर रहे हैं. 

➡️ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21:-

यह अनुच्छेद जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि डिजिटल एक्सेस इस अधिकार का एक अभिन्न अंग है. इसका अर्थ है कि सभी नागरिकों को डिजिटल सेवाओं और जानकारी तक पहुंच होनी चाहिए, ताकि वे अपने जीवन को बेहतर ढंग से जी सकें और सभी क्षेत्रों में समान रूप से भाग ले सकें. 

➡️ क्या होता है डिजिटल एक्सेस :-

डिजिटल एक्सेस का मतलब है किसी भी व्यक्ति की डिजिटल तकनीकों और संसाधनों तक पहुँच और प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता। इसमें इंटरनेट, कंप्यूटर, स्मार्टफोन, सॉफ्टवेयर, और ऑनलाइन सेवाओं तक पहुंच शामिल है.

➡️ डिजिटल एक्सेस का महत्व:-

डिजिटल एक्सेस आज के जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि यह शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सरकारी सेवाओं और सामाजिक गतिविधियों तक पहुंच प्रदान करता है. 

➡️ डिजिटल एक्सेस के उदाहरण:-

🌑 एक विद्यार्थी को ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंचने का अधिकार है. 

🌑 एक मरीज को ऑनलाइन स्वास्थ्य सेवा तक पहुंचने का अधिकार है. 

🌑 एक नागरिक को ऑनलाइन सरकारी सेवाओं तक पहुंचने का अधिकार है. 

🌑 सभी नागरिकों को समान रूप से डिजिटल सेवाओं तक पहुंचने का अधिकार है. 

➡️ डिजिटल अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय :-

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (30 अप्रैल, 2025) को दिए एक फैसले में ई-गवर्नेंस और कल्याण वितरण प्रणालियों तक समावेशी और सार्थक डिजिटल पहुंच को जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा माना. 

🌑 जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर. महादेवन की बेंच ने कहा - 

" कि राज्य का दायित्व है कि वह समाज के हाशिए पर पड़े, वंचित, कमजोर, विकलांग और ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत वर्गों को एक समावेशी डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करे।" 

 इस निर्णय द्वारा सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने सरकार को अपने ग्राहक को जानें (केवाईसी) प्रक्रियाओं में सुधार करने के साथ साथ उन्हें अधिक सुलभ बनाने के लिए 20 निर्देश भी जारी किए।

🌑 न्यायालय ने कहा - 

" कि भारत में आधार, ऑनलाइन सेवा वितरण प्लेटफॉर्म और नेट बैंकिंग के माध्यम से “डिजिटल प्रगति की लहर” के बीच एक महत्वपूर्ण पहलू जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, वह यह है कि क्या यह तकनीक वास्तव में समावेशी और सभी के लिए सुलभ है।" 

🌑 खंडपीठ के न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा-

    "डिजिटल पहुंच का अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का एक सहज घटक है, जिससे राज्य को न केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों, बल्कि हाशिए पर पड़े लोगों और ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत लोगों की सेवा के लिए समावेशी डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र को सक्रिय रूप से डिजाइन और कार्यान्वित करने की आवश्यकता होती है।" 

➡️ निर्णय का आधार - 

यह निर्णय प्रज्ञा प्रसून और अन्य के नेतृत्व में एसिड अटैक सर्वाइवर्स के एक समूह द्वारा दायर याचिका और दृष्टिबाधित अमर जैन की दो अलग याचिकाओं पर आधारित था। याचिका में चिंता जताई गई कि एसिड अटैक पीड़ितों सहित विकलांग लोगों के लिए डिजिटल केवाईसी प्रक्रियाओं को सफलतापूर्वक पूरा करना लगभग असंभव है, जिसमें दृश्य कार्य शामिल हैं।

➡️ न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा 

" कि चेहरे पर चोट, विकृति और दृष्टि दोष के कारण एसिड अटैक सर्वाइवर्स के लिए अपना सिर हिलाना, पलक झपकाना, दृश्य निर्देशों का पालन करना और स्क्रीन पर दिए गए निर्दिष्ट फ्रेम के भीतर अपना चेहरा रखना भी असंभव हो जाता है। नतीजतन, वे डिजिटल रूप से अपनी पहचान स्थापित करने में असमर्थ हैं या बैंक खाता खोलने या आवश्यक सेवाओं और सरकारी कल्याण योजनाओं तक पहुँचने में भी उन्हें लंबे समय तक देरी का सामना करना पड़ता है। लगभग अमित्र इस डिजिटल माहौल ने आबादी के इन वर्गों को मुख्यधारा के समाज में वापस लाने के बजाय उन्हें और अधिक अपंग बना दिया है।"

🌑 डिजिटल विभाजन के सम्बन्ध में न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा, 

"समकालीन युग में आवश्यक सेवाओं, शासन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक अवसरों तक पहुँच डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से तेज़ी से बढ़ रही है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की इन तकनीकी वास्तविकताओं के प्रकाश में पुनर्व्याख्या की जानी चाहिए। डिजिटल विभाजन को पाटना अब केवल नीतिगत विवेक का मामला नहीं रह गया है, बल्कि यह सम्मानजनक जीवन, स्वायत्तता और सार्वजनिक जीवन में समान भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक अनिवार्यता बन गया है। डिजिटल बुनियादी ढांचा , डिजिटल कौशल, सामग्री तक असमान पहुंच की विशेषता वाला डिजिटल विभाजन न केवल विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) के प्रणालीगत बहिष्कार को जारी रखता है, बल्कि ग्रामीण आबादी, वरिष्ठ नागरिकों, आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों और भाषाई अल्पसंख्यकों के बड़े हिस्से को भी इससे वंचित रखता है।"

🌑 सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार समावेशिता और समानता की आवश्यकता-

'मौलिक समानता के सिद्धांत' का आह्वान करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि डिजिटल परिवर्तन समावेशी और न्यायसंगत दोनों होना चाहिए। पहुंच योग्य वेबसाइटों, एप्लिकेशन और सहायक प्रौद्योगिकी की कमी के कारण दिव्यांगों को ऑनलाइन सेवाओं तक पहुँचने में अनोखी बाधाओं का सामना करना पड़ता है।ग्रामीण भारतीयों को खराब कनेक्टिविटी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में सामग्री की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे वे ई-गवर्नेंस और कल्याणकारी उपायों तक सार्थक पहुंच से वंचित रह जाते हैं।"


🌑 अदालत ने आगे कहा-

 "संविधान के अनुच्छेद 21 [सम्मानजनक जीवन का अधिकार], 14 [समानता], 15 [भेदभाव के खिलाफ अधिकार], 38 [राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत] के तहत राज्य को यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी को शामिल करना चाहिए कि डिजिटल बुनियादी ढांचा, सरकारी पोर्टल, ऑनलाइन शिक्षण प्लेटफॉर्म और वित्तीय प्रौद्योगिकी सभी कमजोर और हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए सार्वभौमिक रूप से सुलभ और उत्तरदायी हों।"

➡️ सुप्रीम कोर्ट ने डिजिटल अधिकार को भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग माना - 

 इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने डिजिटल अधिकार को भारतीय संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग माना है. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय नागरिकों को डिजिटल दुनिया में सक्रिय रूप से भाग लेने और अपने अधिकारों का प्रयोग करने का अधिकार देता है. साथ ही, भारत सरकार के लिए यह सुनिश्चित करने का कर्तव्य तय करता है कि सभी नागरिकों की डिजिटल सेवाओं तक पहुंच का प्रबंधन करे ताकि वे अपने डिजिटल अधिकारों का मौलिक अधिकार के समान प्रयोग कर सकें.

निष्कर्षत: डिजिटल अधिकार अब माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णयानुसार भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार है  जिससे सभी नागरिकों को डिजिटल सेवाओं को प्राप्त करने और डिजिटल दुनिया में सक्रिय रूप से भाग लेने का अधिकार मिलता है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा घोषित किया गया है. यह सभी भारतीय नागरिकों के लिए डिजिटल समावेश को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और आज के समय में बढ़ते डिजिटल एक्सेस के इस दौर में यह सभी आम भारतीयों के लिए जीवन यापन का मुख्य जरिया साबित होने के साथ साथ मौलिक अधिकारों की कड़ी में मील का पत्थर साबित होने वाला है.

द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली) 

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