हाई कोर्ट का निर्णय अधिवक्ता एकता पर कुठाराघात


(Shalini Kaushik Law Classes post link) 

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि किसी वकील या वकीलों के संगठन द्वारा हड़ताल पर जाना, हड़ताल का आह्वान करना या किसी वकील, न्यायालय के अधिकारी या कर्मचारी या उनके रिश्तेदारों की मृत्यु के कारण शोक संवेदना के रूप में कार्य से विरत रहना, प्रत्यक्षतः आपराधिक अवमानना ​​का कृत्य माना जाएगा।

     जहां तक माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद द्वारा अधिवक्ताओं की हड़ताल के कारण न्यायालय में रुके हुए न्यायिक कार्यों पर चिंता को देखते हुए वकीलों या वकीलों के संगठन द्वारा हड़ताल पर जाने की बात सामान्य मुद्दों पर देखा जाए तो सही कहीं जाएगी, किन्तु यदि हम अधिवक्ता समुदाय द्वारा शोक जताने के लिए हड़ताल को देखते हैं तो माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद को अपने निर्णय पर पुनर्विचार किए जाने के लिए ही आग्रह करेंगे क्योंकि उच्च न्यायालय इलाहाबाद का यह फैसला देखा जाए तो अधिवक्ता सम्वेदना को आपराधिक अवमानना के दायरे में घसीट रहा है जो कतई गलत है.

      माननीय उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि शोक सभा का आयोजन किसी भी कार्य दिवस में साढ़े तीन बजे से किया जा सकता है. अब अगर हम अधिवक्ता समुदाय द्वारा शोक जताने के लिए कार्य से विरत रहने की भावना और कारण की बात करते हैं तो य़ह शोक कर अधिवक्ता समुदाय द्वारा मृतक अधिवक्ता के या उसके मृतक परिजन के दाह संस्कार या दफनाने आदि की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए किया जाता है. मेरे पिता जो कि बार एसोसिएशन कैराना के वरिष्ठ अधिवक्ता थे, की मृत्यु 1 मार्च 2015 की शाम 7 बजे हुई, हिन्दू धर्म के सिद्धांतों के अनुसार रात में दाह संस्कार नहीं किया जाता है, इसलिए दाह संस्कार 2 मार्च को होना था, मैं स्वयं अधिवक्ता हूं, पिता की मृत्यु के कारण मैं कचहरी जा ही नहीं सकती थी और मेरे पिता का जो सम्पर्क, समुदाय था, वह भी अधिवक्ता समुदाय था और उस अधिवक्ता समुदाय ने सुबह 7 बजे से ही घर पर पहुंचना आरंभ कर दिया था जो कि स्वाभाविक भी था और जरूरी भी, किन्तु बड़ी संख्या में अधिवक्ता 11 बजे तक एकत्र हो पाए और वह भी तब जब वे कचहरी में शोक व्यक्त करते हुए कार्य से पूर्ण विरत रहने की घोषणा कर पाए. पूरी तरह से दाह संस्कार के कार्य में 2 घण्टे का समय लगा और अधिवक्ताओं द्वारा उसके बाद बार भवन में शोक सभा भी की गई जिसके बारे में मुझे पापा के साथी अधिवक्ता बताकर गए थे. यही नहीं सनातन धर्म के संस्कारों में मृत्यु के बाद तेरहवीं में भी मृतक के परिजनों के दुख बांटने के लिए उसके मित्र, सखा, सम्बन्धी सभी शामिल होते हैं ऐसे ही वकीलों के मित्र, सखा, सम्बन्धी लगभग सभी वकील ही होते हैं, मेरे पिता के भी मित्र, सखा वकील ही थे, जिनका सामुदायिक नाम बार एसोसिएशन कैराना है वे सभी मेरे पिता की तेरहवीं में शामिल हुए जिसका समय सनातन धर्म में 2 बजे रखा गया है और इसके लिए वे 2 बजे से कचहरी कैराना में कार्य से विरत रहे और यह सब जो हो रहा था, यह सब अधिवक्ताओं की संवेदना थी, जिसका कोई भी संदेश माननीय उच्च न्यायालय की आपराधिक अवमानना के रूप में नहीं लिया जा सकता है. ऐसे में साढ़े तीन बजे का निर्णय अगर तब हो गया होता तो एक अधिवक्ता के दाह संस्कार में अधिवक्ता समुदाय ही गायब होता और बाद में वह उपस्थित हो भी जाए तो वह दुख व्यक्त करता हुआ भी ग्लानि अनुभव करता. 

       अधिवक्ताओं पर पहले ही बहुत से प्रतिबन्ध हैं, वे न तो अपने व्यवसाय का विज्ञापन कर सकते हैं, न ही अपना व्यक्तिगत अन्य कारोबार कर सकते हैं, भले ही उनकी वकालत कुछ भी चले या न चले, वे अपने व्यवसाय की गरिमा का सम्मान करते हुए इन सभी नियम कानूनों का पालन करते हैं किन्तु अधिवक्ताओं के शोक जताने के लिए कार्य से विरत रहने को कोर्ट की आपराधिक अवमानना की श्रेणी में लाना अधिवक्ता समुदाय के साथ अन्याय है. पहले ही उत्तर प्रदेश में एडवोकेट प्रोटेक्शन ऐक्ट लागू नहीं है और ऐसे में अधिवक्ताओं पर एक दूसरे के दुख में भी साथ देने पर इस तरह से रोक लगाने पर अधिवक्ताओं को अधिवक्ताओं से अलग करने का प्रयास कर "अधिवक्ता एकता" पर कुठाराघात किया जा रहा है, जिसे किसी भी हालत में सही नहीं कहा जा सकता है. अब मृतक अधिवक्ता या उसके मृतक परिजन के दाह संस्कार, या दफनाने आदि की प्रक्रिया में शामिल होने के समय को छोड़कर बाद में साढ़े तीन बजे मात्र शोक प्रकट कर देना मात्र एक औपचारिकता ही रह जाएगी जिससे अधिवक्ता एकता खतम ही हो जाएगी. 

शालिनी कौशिक

एडवोकेट 

कैराना (शामली) 

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