पूरे देश में अधिवक्ताओं का भविष्य खतरे में
विभिन्न प्रदेशों की बार काउंसिल में अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण पर अत्यधिक शुल्क वसूली पिछले कुछ महीनों से माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अधीन थी, गौरव कुमार बनाम भारत संघ की मुख्य याचिका के साथ एक पूरा याचिकाओं का समूह था. याचिकाओं में अलग अलग बार काउंसिल द्वारा लिए जाने वाले नामांकन शुल्क को अत्याधिक बताया गया था. याचिकाओं की सुनवाई उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूड की अगुवाई वाली बेंच कर रही थी जिसमें जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा सम्मिलित थे. याचिकाओं के इस समूह में एक ही सवाल उठाया गया कि क्या नामांकन शुल्क के रूप में अत्यधिक शुल्क वसूलना अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24(1) का उल्लंघन है? एडवोकेट्स एक्ट की धारा 24 (1) (च) में एडवोकेट एनरोलमेंट के लिए शुल्क निर्धारित की गई है जिसके तहत सामान्य वर्ग के लिए 750 रुपये और एसटी एससी के लिए 125 रुपये शुल्क तय है लेकिन आरोप था कि हर राज्य की बार काउंसिल वकीलों से इसके लिए 15 से 45 हजार तक फीस ले रही हैं.
इन्हीं सवालों पर गौर करते हुए अधिवक्ताओं के नामांकन शुल्क को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है. उच्चतम न्यायालय ने बार काउंसिल को कहा है कि वह वकीलों के नामांकन के लिए तय फीस से ज्यादा पैसा नहीं ले सकते है. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा है "कि चूंकि संसद ने नामांकन शुल्क तय कर रखा है, इसलिए बार काउंसिल इसका उल्लंघन नहीं कर सकती . सुप्रीम कोर्ट ने धारा 24(1)(च ) का हवाला देते हुए कहा है कि यह एक राजकोषीय विनियामक प्रावधान है इसलिए इसका पालन होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एडवोकेट एनरोलमेंट के लिए राज्य बार काउंसिल एडवोकेट्स एक्ट में दिए प्रावधान से अधिक की राशि नहीं ले सकते. "
कोर्ट ने कहा कि चूंकि संसद ने नामांकन शुल्क तय कर रखा है, इसलिए बार काउंसिल इसका उल्लंघन नहीं कर सकती. धारा 24(1)(च ) एक राजकोषीय विनियामक प्रावधान है इसलिए इसका सख्ती से पालन होना चाहिए. नामांकन के लिए अतिरिक्त शुल्क निर्धारित करके, राज्य बार काउंसिल ने नामांकन के लिए अतिरिक्त मूल दायित्व बनाए हैं, जो अधिवक्ता अधिनियम के किसी भी प्रावधान से संबंधित नहीं हैं.
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की ओर से दिए गए फैसले में कहा गया कि नामांकन के लिए पूर्व शर्त के रूप में अत्यधिक शुल्क वसूलना, विशेष रूप से कमजोर वर्गों से संबंधित लोगों के लिए, उनके पेशे को आगे बढ़ाने में बाधाएं पैदा करता है. ऐसे में उम्मीदवारों के पास कोई विकल्प नहीं बचता, इसलिए उन्हें बार काउंसिल की ओर से मजबूर किया जाता है.
इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस फैसले का केवल भावी प्रभाव होगा, जिसका साफ साफ मतलब ये है कि बार काउंसिल को अब तक वैधानिक राशि से अधिक एकत्र किए गए नामांकन शुल्क को वापस करने की आवश्यकता नहीं है. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि बार काउंसिल अधिवक्ताओं के लिए किए जाने वाले काम के लिए अन्य शुल्क लेने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें नामांकन शुल्क के रूप में नहीं वसूला जा सकता.
अब जहां तक हम माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के हालिया प्रभाव को देखते हैं तो नए नए एडवोकेट नामांकन कराने जा रहे युवाओं में खुशी की लहर है. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से नामांकन शुल्क कम ही नहीं हुआ है बल्कि बरसों बरस से नामांकन कराने के लिए प्रतीक्षा कर रहे युवाओं में एक उत्साह की लहर सी दौड़ गई है किन्तु इस नामांकन शुल्क के कम किए जाने के दूरगामी प्रभाव पर न तो सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान दिया है और न ही शुल्क कम होने का दुष्परिणाम नामांकन की लाइन में लगे युवाओं की नजर में है.
बार काउंसिल ऑफ इंडिया हो या बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश या अन्य कोई बार काउंसिल, इनकी निधि का जरिया केवल और केवल अधिवक्ताओं से लिया जाने वाला नामांकन शुल्क, अधिवक्ता कल्याण निधि का वक़ालत नामों पर लगाए जाने वाला स्टाम्प, प्रेक्टिस प्रमाण पत्र शुल्क होता है जिसमें से इन्हें निम्न बहुत से कार्य सम्पन्न करने होते हैं. एडवोकेट्स एक्ट 1961 की धारा 6 में राज्य विधिज्ञ परिषद के निम्नलिखित कृत्य निर्धारित किए गए हैं -
6. राज्य विधिज्ञ परिषदों के कृत्य-(1) राज्य विधिज्ञ परिषद् के निम्नलिखित कृत्य होंगे, -
(क) अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्तियों को प्रविष्ट करना;
(ख) ऐसी नामावली तैयार करना और बनाए रखना;
(ग) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के विरुद्ध अवचार के मामले ग्रहण करना और उनका अवधारण करना;
(घ) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना;
[(घघ) इस धारा की उपधारा (2) के खंड (क) और धारा 7 की उपधारा (2) के खंड (क) में निर्दिष्ट कल्याणकारी स्कीमों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के प्रयोजनों के लिए विधिज्ञ संगमों के विकास का उन्नयन करना;]
(ङ) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना;
[(ङङ) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधि-शास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन और वार्ताओं का आयोजन करना और विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकाएं और लेख प्रकाशित करना;
(ङङङ) विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता देने के लिए आयोजन करना;]
(च) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विनिधान करना;
(छ) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना;
1[(छछ) धारा 7 की उपधारा (1) के खंड (झ) के अधीन दिए गए निदेशों के अनुसार विश्वविद्यालयों में जाना और उनका निरीक्षण करना;]
(ज) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन उसे प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन करना;
(झ) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्य करना ।
[(2) राज्य विधिज्ञ परिषद्, विहित रीति से एक या अधिक निधियों का गठन निम्नलिखित प्रयोजन के लिए, अर्थात्: -
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए,
(ख) इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार विधिक सहायता या सलाह देने के लिए,
[(ग) विधि पुस्तकालयों की स्थापना करने के लिए ।]
कर सकेगी ।
(3) राज्य विधिज्ञ परिषद्, उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट सभी प्रयोजनों या उनमें से किसी प्रयोजन के लिए अनुदान, संदान, दान या उपकृतियां प्राप्त कर सकेगी, जो उस उपधारा के अधीन गठित समुचित निधि या विधियों में जमा की जाएंगी ।
इस प्रकार निर्धारित अपने उपरोक्त कर्तव्यों के पालन में राज्य विधिज्ञ परिषद द्वारा स्वयं को प्राप्त निधियों में से जो कि उसके द्वारा अधिवक्ताओं के नामांकन शुल्क, अधिवक्ता कल्याण निधि शुल्क, प्रैक्टिस प्रमाण पत्र शुल्क आदि के रूप में प्राप्त की जाती हैं, के द्वारा योजनाओं के माध्यम से किया जाता है. इन्हीं कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करते हुए बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश द्वारा एक लम्बे समय से अधिवक्ताओं को चिकित्सा अनुदान के रूप में लगभग 25 हज़ार रुपये तक, मृत्यु अनुदान के रूप में निर्धारित आयु वर्ग तक 5 लाख रुपये और 2 लाख रुपये तक अनुदान दिए जाते रहे हैं. बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश द्वारा अधिवक्ताओं की सहायता के मद्देनजर ही कोरोना काल में भी कोरोना पीड़ित अधिवक्ताओं की मृत्यु होने पर निर्धारित आयु वर्ग का उल्लंघन कर भी उनके परिजनों को 5-5 लाख की आर्थिक सहायता प्रदान की गई. यही नहीं 2022 में बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश द्वारा अपने कोष से नए अधिवक्ताओं को पुस्तक निधि के रूप में 5-5 हजार की धनराशि उनके बैंक खातों में ट्रांसफर की गई और यह उसी राशि में से थी जो बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश द्वारा अधिवक्ताओं के नामांकन शुल्क, अधिवक्ता कल्याण निधि शुल्क, प्रेक्टिस प्रमाण पत्र शुल्क आदि द्वारा अर्जित किया जाता है.
अपने हालिया फैसले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि बार काउंसिल अधिवक्ताओं के लिए किए जाने वाले काम के लिए अन्य शुल्क लेने के लिए स्वतंत्र हैं,तो इस मुद्दे पर यदि सामान्यतः विचार किया जाए तो राज्यों की बार काउंसिल को अलग से योजना बनाकर अधिवक्ताओं को उसमें निश्चित धन जमा करा लाभ उठाने की बात कहने से अधिवक्ता हितार्थ कोई निधि प्राप्त नहीं होने वाली है क्योंकि जो युवा अधिवक्ता नामांकन शुल्क के रूप में उत्तर प्रदेश में 17 हजार रुपये तक, उड़ीसा में 43 हजार रुपये तक जमा कर दे रहे हैं, यही नहीं, नामांकन शुल्क के रूप में तुरंत एडवोकेट बनने के लिए उत्तर प्रदेश में 17 हजार रुपये से ऊपर 5 हजार रुपये भी तत्काल रजिस्ट्रेशन के लिए दे रहे हैं वे ही अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने पर बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश की कल्याणकारी योजना न्यासी निधि में 5000 रुपये तक भी नहीं जमा कर रहे हैं जबकि बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश द्वारा 5000 रुपये जमा कराने पर 30 वर्ष में 5 लाख रुपये देने की बात कही जा रही है. इसलिए यह सोचना, कि अधिवक्ताओं द्वारा बिना किसी दबाव के किसी और योजना में बार काउंसिल में कोई धनराशि अपने भविष्य की सकारात्मक भूमिका रखने वाली कल्याणकारी योजनाओं के बारे में जमा की जाएगी, व्यर्थ है और इस तरह से राज्य विधिज्ञ परिषदों के निधि प्राप्ति के रास्ते बंद होने से उनके द्वारा अधिवक्ताओं के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर विराम लगने की पूर्ण संभावना है.
ऐसे में, जहां तक संभावना है वह यह है कि अधिवक्ताओं के नामांकन शुल्क के रूप में यह भारी गिरावट नए अधिवक्ताओं के साथ साथ पूरे देश के अधिवक्ताओं पर भारी पड़ने वाली है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अधिवक्ताओं के हितों की उपेक्षा और राज्य विधिज्ञ परिषदों के आय के स्रोतों में इस तरह प्रतिबंध लगाने से अधिवक्ताओं और उनके परिजनों को प्राप्त होने वाले अनुदानों पर मार पड़ना स्वाभाविक है. एक अधिवक्ता अन्य कोई व्यवसाय नहीं कर सकता, उसकी आय का जरिया केवल उसकी वक़ालत से होने वाली कमाई होती है जो कि केवल उसके कार्य करने तक या फिर उसके जीवन के रहने तक ही उसके परिजनों को प्राप्त होती है. ऐसे में राज्य विधिज्ञ परिषदों से प्राप्त ये आर्थिक सहायता, चिकित्सा एवं मृत्यु अनुदान ही अधिवक्ता और उनके परिजनों के सहायक होते थे और अब अधिवक्ताओं का यह सहारा भी माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से छिन जाने की संभावना है, जिस पर पुनर्विचार होना ही चाहिए.
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली)
अधिवक्ता हितार्थ सार्थक विचार है। कदाचित इस निर्णय से भविष्य में आय का स्रोत कम होने से बुरे समय में यथा डैथ कलैम या आपदा जैसे हालात में अधिवक्ता के लिए आखिर कहां से आर्थिक सहायता की जाएगी???
जवाब देंहटाएंइसीलिए माननीय उच्चतम न्यायालय से निर्णय पर पुनर्विचार किए जाने का आग्रह किया गया है. सार्थक टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद सर 🙏🙏
जवाब देंहटाएं