मीडिया रिपोर्टिंग कानूनी कार्रवाई में बाधक

 



आपराधिक कानूनी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण है "शिनाख्त या पहचान परेड", पहचान परेड का उपयोग गवाह की ईमानदारी और अज्ञात लोगों को पहचानने की क्षमता का आकलन करने के लिए किया जाता है। पहचान परेड का पुष्टिकरण या मूल मूल्य निर्विवाद है, और पर्याप्त साक्ष्य या मुख्य साक्ष्य के रूप में इसका उपयोग खारिज कर दिया गया है। सबूत के तौर पर, पहचान परीक्षण पूरी तरह से पुष्टि करने वाला और गौण है।

शिनाख्त का अर्थ होता है पहचानना। जब कोई व्यक्ति अपराध करने के बाद पकड़ा जाता है तब यह पक्का करने के लिए कि वही अपराध करने वाला है, पीड़ित व्यक्ति से उसकी पहचान करवाईं जाती है।

अपराधी को कई व्यक्तियों के बीच खड़ा कर दिया जाता है और फिर पीड़ित व्यक्ति को बुला कर उनमें से अपराधी को पहचानने के लिए कहा जाता है और पीड़ित व्यक्ति द्वारा अपराधी को पहचान  करने की इस कार्यवाही को ही शिनाख्त परेड कहते हैं।

       भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 9 शिनाख्त परेड के संबंध में प्रावधान करती है. धारा 9 अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 में धारा 7 हो गई है जिनमें शिनाख्त की कार्यवाही अभियुक्त की पहचान करने का एक महत्वपूर्ण ढंग माना गया है.

*कमल बनाम दिल्ली राज्य (NCT) में माननीय न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) ने निर्णय में कहा कि "यदि आरोपियों को पहले ही पुलिस स्टेशन में गवाहों के सामने पेश किया जा चुका है, तो न्यायालय के समक्ष टीआईपी की पवित्रता संदिग्ध है।"

*रामकिशन बनाम बॉम्बे स्टेट [एआईआर 1955 एससी 104] के मामले में यह स्थापित किया गया था कि किसी अपराध की जांच के दौरान पुलिस को पहचान परेड करवानी होती है। ये परेड गवाहों को अपराध के केंद्र में रहने वाली संपत्तियों या अपराध में शामिल व्यक्तियों की पहचान करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से की जाती है।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 9 न्यायालय में प्रासंगिक तथ्यों के रूप में सही अभियुक्त और संबंधित संपत्तियों की पहचान की स्वीकार्यता की अनुमति देती है। हालाँकि, यह अभियुक्त के लिए जाँच अधिकारी द्वारा आयोजित पहचान परेड में भाग लेना अनिवार्य नहीं बनाता है। इसका मतलब यह है कि अभियुक्त को पहचान प्रक्रिया में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

शिनाख्त परेड पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 54 ए लागू होती थी जो अब भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता 2023 में धारा 54 हो गई है । धारा 54 में गिरफतार व्यक्ति की शिनाख्त के बारे में बताया गया है। यदि जांच के हिस्से के रूप में गिरफ्तार व्यक्ति की पहचान करना आवश्यक है, तो क्षेत्राधिकार वाला न्यायालय गिरफ्तार व्यक्ति को पहचान प्रक्रिया से गुजरने का आदेश दे सकता है किन्तु इस पहचान परेड का अनुरोध पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी की ओर से आना चाहिए। अदालत पहचान के तरीके को तय करेगी। यदि संदिग्ध की पहचान करने वाला व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग है, तो शिनाख्त करने की ऐसी प्रक्रिया न्यायिक मजिस्ट्रेट के पर्यवेक्षण के अधीन होगी जो यह सुनिश्चित करने के लिए समुचित कदम उठाएगा कि उस व्यक्ति द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की उन पद्धतियों का प्रयोग करते हुए शिनाख्त की जाए जो उस व्यक्ति के लिए  सुविधापूर्ण हो. इस पहचान प्रक्रिया को ऑडियो-वीडियो साधनों का उपयोग करके रिकॉर्ड भी किया जाना चाहिए।

 भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने परीक्षण पहचान परेड के संबंध में कई महत्वपूर्ण फैसले जारी किए हैं, जिनमें किशोर प्रभाकर सावंत बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि जब आरोपी को अपराध स्थल पर रंगे हाथों पकड़ा जाता है, तो पहचान परेड की कोई ज़रूरत नहीं होती। ऐसे मामलों में, गिरफ़्तारी की परिस्थितियाँ पर्याप्त सबूत प्रदान करती हैं, किन्तु इसके साथ ही महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश मे सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि पहचान परेड मुख्य रूप से जांच के लाभ के लिए आयोजित की जाती है, न कि केवल अदालती उद्देश्यों के लिए। पहचान परेड आरोपी की पहचान स्थापित करने में सहायता करने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करती है।

     किन्तु वर्तमान में देखने में आ रहा है कि जब भी पुलिस द्वारा किसी भी अपराध के अपराधियों का खुलासा किया जाता है तो मीडिया द्वारा पुलिस के साथ उन सभी कथित अपराधियों के स्पष्ट फोटो सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट्स पर और अखबारों में प्रकाशित कर दिए जाते हैं. जब कि अपराधियों के पुलिस द्वारा पकड़े जाने के बाद उन्हें एक लम्बी अदालती प्रक्रिया से गुजरना होता है और जिसमें एक मुख्य प्रक्रिया शिनाख्त परेड भी होती है. नेटवर्किंग साइट्स और समाचार पत्रों में अपराधियों के स्पष्ट फोटो का आना एक तरह से पीड़ितों और कथित अपराधियों दोनों के ही हितों के खिलाफ है क्योंकि बहुत सी बार पीड़ित ने अपराधी को देखा हुआ नहीं होता है और वह पुलिस के पास खड़े अपराधी को देखकर अंदाज़े से ही उस व्यक्ति की अपराधी के रूप में शिनाख्त कर देता है, जिसे बाद में अदालती कार्यवाही में अपराधी तक साबित करने में अभियोजन विफल रह जाता है. इसके साथ ही, जिस व्यक्ति की अपराधी के रूप में पीड़ित ने मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर शिनाख्त कर दी थी, उसे भी अदालती कार्यवाही में निर्दोष साबित होने में इतनी लम्बी अवधि तक सामाजिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है जो उससे भी ज्यादा उसके परिवार के लिए घातक साबित हो जाता है. 

ऐसे में, मीडिया चैनल पर पुलिस द्वारा अपराधियों के रूप में पकड़े गए व्यक्तियों के स्पष्ट फोटो प्रकाशित किए जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए क्योंकि ये न केवल अदालती कार्यवाही को बाधित कर रहे हैं बल्कि कुछ निर्दोष लोगों की जिंदगी में अपने चैनल की रेटिंग बढ़ाने या समाचारपत्र की बिक्री बढ़ाने के लिए ज़हर घोल रहे हैं. 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली) 





टिप्पणियाँ

  1. समाज मे अक्सर इस तरह की घटनाओं को हम लोग हर रोज देखते रहते हैं। आप का लेख कसौटी पर १००% खरा है।

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  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. सार्थक टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद सर 🙏🙏

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